February 24, 2014

चकराता का भुतहा डाक बंगला

बात पुरानी है .घूमने फिरने के शौक के चलते चकराता का कार्यक्रम बना और वहां जाने रुकने के लिए हरिद्वार के संवादाता सुनील दत पांडेय ने परमिट वगैरह बनवा दिया क्योकि सारा इलाका सेना के अधीन है . चकराता बस से गए थे और ज्यादा जानकारी नहीं थी .जब पहुंचे तो भीगी हुई शाम थी .रास्ता पूछते पूछते डाक बंगला की तरफ चले तो घने देवदार की जंगलों में एक किलोमीटर से भी ज्यादा चलने पर एक पुराना बंगला नजर आया जो बंद था .बरामदे की कुर्सियों पर बैठे तभी एक बुजुर्ग सामने आए जो उसके चौकीदार और खानसामा सभी थे .खैर चाय और रात के खाने के बारे में पूछा तो जवाब मिला ,बाजार से साम लाना होगा तभी कुछ बन पाएगा और बाजार बंद होने वाला है!

नाम नहीं याद पर चौकीदार ने डाक बंगले का एक सूट खोल दिया जो ठंडा और सीलन भरा था जिसके कोने में बने फायर प्लेस में रखी लकड़ी को जलाने के साथ मेरे और सविता के लिए दो कप दार्जलिंग वाली चाय भी ले आया तो कुछ रहत मिली .ठंड बढ़ चुकी थी और बाहर बरसात और धुंध से ज्यादा दूर दिख भी नहीं रहा था .यह डाक बंगला अंग्रेजों के ज़माने का था जिसका एक हिस्सा स्कूल में तब्दील हो चुका था .बाद में चौकीदार ने बताया वह भी उसी दौर से यहाँ पर है और जब राजीव गाँधी देहरादून में पढ़ते थे तो छुट्टियों में यही आते और रुकते थे .डाक बंगले में बिजली नहीं थी और एक पुराने लैम्प की रौशनी में खाना खाते हुए चौकीदार से कुछ पुराने किस्से सुन रहे थे .और उस वीराने में कुछ था भी नहीं बाहर बरसात के चलते अगर निकलते भी तो घना अँधेरा .तेज हवा के साथ बरसात की तेज बूंदे टिन की छत पर गिरकर कर्कश आवाज कर रही थी .कमरे के भीतर एक कोने में भी पानी की बूंदे अपना रास्ता तलाश रही थी!

सुबह चाय के लिए जब दरवाजा खटखटाया गया तो नींद खुली और सामने का नजारा देख कर हैरान थे .बदल छंट चुके थे और सामने हिमालय की लम्बी श्रृखला पर सूरज की चमकती किरणों से जो रंग बन रहा था वह अद्भुत था .चारो और जंगल की हारियाली और पहाडो की सफ़ेद बर्फ सम्मोहित कर रही थी .चाय की प्याली लेकर बाहर निकले तो गिट्टी पर रखी कुर्सियों पर जम गए .उठने का मन नहीं हो रहा था .चकराता में देवदार के घने जंगल है और कोई आबादी नहीं .निर्माण पर रोक है .इतनी शांत जगह बहुत कम मिलती है .चौकीदार से घूमने के बारे में पूछा तो उसने टाइगर फाल जाने को कहा पर हिदायत दी कि कोई स्थानीय व्यक्ति को साथ ले ले वर्ना भटक जाएंगे.दूरी करीब आठ दस किलोमीटर की थी पर बहुत निचे उतर कर फिर इतना ही चढ़ना भी था .पर तय कर लिया जाना है ओर चल पड़े .जंगल के बीच से और रास्ता चरवाहों से पूछते गए रास्ता क्या था पगडंडी थी जो कई जगह खतरनाक हो जाती थी .करीब तीन बजे शाम को टाइगर फाल तक पहुँच गए .यह झरना भी काफी खुबसूरत है और बाहुत उंचाई से गिरता है .यही पानी बाद में नदी में तब्दील हो जाता है .करीब आधा घंटा ही हुआ की सामने बदल उमड़ते दिखे और हलकी बरसात भी .स्थानीय लोगों ने कहा किसी को साथ लेकर जाए वर्ना जंगल में फंस सकते है!

एक बच्चे को साथ लिया और बारिश में चढ़ाई शुरू कर दी .चार किलोमीटर की चढ़ाई के बाद जो बरसात तेज हुई तो वह बच्चा भी भाग गया और अँधेरा छाने लगा बरसात अब मुसलाधार हो चुकी थी और जिस पगडंडी के सहारे पेड़ों को पकड़ कर चढ़ रहे थे वह पगडंडी तेज बरसाती नाले में बदल चुकी थी .अब दर भी लग रहा था और साँस भी फूलने लगी थी .कई जगह फिसल कर मिटटी में सराबोर हो चुके थे .कुछ आगे बढे तो सविता पानी के तेज बहाव में नीचे गिरते गिरते बची और ठंड से कांपती हुई बोली अब चला नहीं जा सकता .छोड़ दो .ऐसा अनुभव कभी नहीं हुआ था .ठंड में ज्यादा देर रहना खतरनाक था .हिम्मत कर घिसते हुए आधा किलोमीटर चले तो एक गुरुद्वारा दिखा .जान में जान आ गई और अब लगा सही सलामत डाक बंगला तक पहुँच सकते है .

गुरुद्वरा का दरवाजा खटखटाया तो बुजुर्ग महिला हम लोगों की हालत देख हैरान थी .तौलिया ,कम्बल दिया और अंगीठी के सामने बिठा कर चाय पिलाई और डांट भी लगाई . बताया यह जंगल जानवरों से भरा है और बिना गाइड कोई सैलानी इस तरह नहीं जाता .खैर घंटे भर बाद सामान्य हुए तो सरदारजी ने टार्च के साथ अपना नौकर भी साथ भेजा .चढ़ाई अभी भी थी पर उत्साह बढ़ चुका था .डाक बंगला पहुँचने से पहले बाजार में रुके और एक फोटोग्राफ़र से सविता की फोटो भी खिंचवाई ताकि यह घटना याद रहे .डाक बंगला पहुच क़र भीगे कपड़ों को बदलने के बाद आग के सामने बैठे! चौकीदार बाबा की चाय के साथ अब हम उन्हें दिनभर का किस्सा सुना रहे थे .ऐसा ही वाकया दूसरी बार गोवा में दूध सागर वाटरफाल की यात्रा के दौरान हुआ था! पर अब वह भुतहा डाक बंगला अपने घर जैसा लग रहा था!

No comments:

Post a Comment