February 12, 2014

Hindi Horror Story - रति का भूत (लेखक - ईश्वरसिंह चौहान)

अमावस की काली रात ने गाँव को धर दबोचा था। चौधरियों के मोहल्ले में से बल्बों की रोशनी दूर से गाँव का आभास करवाती थी। आठ बजते-बजते तो सर्दी की रात जैसे मधरात की तरह गहरा जाती है। कहीं कोई कुत्ता भौंकता तो कभी कोई गाय रंभाती पर आदमी तो जैसे सिमट कर अपनी गुदड़ी का राजा हो गया हो। कभी-कभी बूढ़े जनों की खराशकी आवाज़ आती थी।

जसोदा ने ढीबरी जला दी। लखिया अभी तक घर नहीं आया था। वैसे भी उसको कहाँ पड़ी थी जसोदा की... जब देखो तब चौधरी हरी राम की बैठक में जमा रहता था। कई दिनों से अफीम भी लेने लगा है। लखिया की ये बात जसोदा को पसंद नहीं। इसी बात पर दोनों के बीच तू-तू मैं-मैं होती रहती हैं। दूर खेतों से सियार की डरावनी आवाज़ सुनाई देने लगी तभी मोर चीखे, जसोदा का कलेजा दहल गया। रोटी को तवे से उतारते हुए उसने आह भरी, ''हे राम! सब की रक्षा करना कौन जाने क्यों आज की शाम उसे मनहूस लग रही थी। अनिष्ट से पहले की खामोशी उसे डरा रही थी। दो-तीन बार दरवाज़े पर जाकर रास्ता देख आई लखिया का कहीं कोई पता नहीं। मन ही मन लखिया को कोस रही थी पर मोरों की डरावनी चीख पुकार सुन भगवान से बार-बार लखिया भी सलामती की प्रार्थना करती थी। झोंपड़ी में जी घुटने लगा तो आँगन में बैठ गई।

ब्याह को पाँच साल हो गए पर जसोदा अकेली की अकेली रही। कभी-कभी मन करता इस अपाहिज ज़िंदगी से मर जाना अच्छा हैं। दिन होता तो किसी न किसी बहाने लोग दस्तक देते रहते हैं। क्या चौधरी क्या कुंलार क्या ब्राह्मण क्या कहार... सभी को लगता जसोदा को उसकी ज़रूरत है। परंतु उसने आज तक किसी की तरफ़ आँख उठाकर नहीं देखा। ये बात लखिया की समझ से परे हैं। जसोदा टेढ़ी-मेढ़ी सोच रही थी, तभी कुत्ता भौंका जसोदा भाग कर दरवाजे पर गई, सरकंडों का बना जाया (दरवाज़ा) उघाड़ कर देखने लगी थोड़ी ही दूर एक लड़खड़ती मानव-आकृति गति में बढ़ी जा रही थी। ज़ोर से कुत्ते को ठोकर मारी। मारकर वो कहने लगा, ''मादरचोद रस्ते में आता है तेरी तो... साला रांड की तरह पंचात करता है...चल हट।'' गिरते-गिरते रह गया, जसोदा ने आवाज़ पहचान ली थी देवसी रबारी था वो। सर्दी हो या गर्मी, देवसी दारू खींचने से बाज़ नहीं आता। दिल से सच्चा आदमी है परंतु शराब ने साख पर पलीता मार दिया है। कोई उसकी बात पर विश्वास नहीं करता। गाँवभर में तो देवसी दारूड़िये के नाम से जाना जाता है।

जसोदा ने सोचा था शायद लखिया आया होगा पर लखिये का कहीं पता न था। देवसी की बात याद आई, मन में एक शब्द खटका रांड। जसोदा ने आज तक देवसी को किसी औरत को गाली देते हुए नहीं सुना जब भी तो किसी को पुकारता था तो कहता था, ''अरे सुनना था?'' आज रांड शब्द किसके लिए पंचात शब्द याद आते ही जसोदा को रती याद आ गई। रती ही है जो गाँव भर की औरतों को जमा कर रही हैं वो थोड़ी-सी पढ़ी लिखी है जब से रामदीन मेघवाल उसे गाँव में लाया है। गाँव में एक नया दौर शुरू हुआ है। बच्चों को पढ़ाने लिखाने पर ज़ोर देते हुए कहती हैं, ''बच्चों का भविष्य सुधरेगा तो देश का भला होगा, जाति और घर उससे उन्नत होंगे।'' उसी ने पहली बार लड़कियों को स्कूल में भिजवाया और हेड मास्टर से झगड़ा करके ग़रीब बच्चों की फीस माफ़ करवाई। ये बातें गाँव के चौधरियों को रास नहीं आतीं। कोई औरत गाँव में पंचायत करे ये उनको पसंद नहीं आ रहा था। अधुरे में पुरे गाँव की पंचायत में सरपंच की महिला आरक्षण सीट आ गई थी तब से रती चौधरियों के लिए एक चुनौती थी। चौधरी पंचायत को अपने आप रखना चाहते थे। रती उसे आज़ाद करवाना चाहती थी।

जसोदा को देसाई की बात समझ में नहीं आ रही थी पर रह-रह कर मन में एक खटका उड़ता था। भौरों की मनहूस चीखे उसे और शंकित कर रही थी। उसे लगने लगा था जैसे आज की रात कोई मनहूस बात होगी ज़रूर।

जसोदा जांया बंद करके झोपड़ी में जाने को हुई ही थी कि किसी ने पुकारा, ''जसोदा जांचा खोल!'' आवाज़ लखिया की थी। लखिया को देखकर जसोदा के प्राणों में प्राण आए तो तेज़ी से लपककर दरवाज़े की तरफ़ बढ़ी और दरवाज़ा खोल दिया। लखिये ने आव देखा न ताव सीधा झोपड़ी के अंदर चला गया। जसोदा को लखिया की इस बात पर आश्चर्य हुआ। ऐसा व्यवहार उसने पहले कभी किया न था। झोपड़ी में आकर देखा लखिया बेसुध-सा पड़ा था। उसका शरीर पसीने से लथपथ हो रहा था। जसोदा ने पानी का लोटा लखिया को देते हुए प्रश्न किया, ''कहाँ था इतनी देर?'' लखिए ने आग्नेय दृष्टि से उसकी तरफ़ देखा और दहाड़कर बोला, ''जहन्नुम में...'' जसोदा को लखिये की बात कुछ अच्छी न लगी। ''ये भी कोई बात हुई एक तो आधी रात तक घर आने की सुध नहीं है और ऊपर से तेवर दिखा रहा है।'' पर क्रोध को पीते हुए बोली, ''क्या बात है? तबीयत ठीक नहीं हैं?'' ''रोटी परोस दूँ?'' लखिया कुछ शांत हुआ धीरे से खटिया पर करवट बदलते हुए बोला, ''नहीं भूख नहीं है अब सो जा।'' जसोदा ने देखा लखिया की बंडी (बनियन) कुछ फट गई थी। जैसे किसी ने नाखुनों से फाड़ दी हो।'' जसोदा का मन हुआ पूछे ये क्या हुआ पर ये सोचकर चुप हो गई कि फिर वो चीखेगा और बेमतलब बखे़ड़ा खड़ा हो जाएगा।

झोपड़ी में खामोशी छा गई लखिया बार-बार करवटें बदल रहा था। जसोदा आँख उघाड़े सोने की कोशिश कर रही थी परंतु नींद है कि आने का नाम नहीं ले रही थी। एक ही बात मन को खाए जा रही थी। लखिया की फटी हुई बनियान किसी अनिष्ट की ओर ध्यान दिलवाती हैं। मन ही मन चौधरियों को गाली देती हैं। सब दुष्ट इस सीधे-साधे आदमी से न जाने क्या करवा दे। हे भगवान मेरे लखिया की रक्षा करना। पैरों में पड़ी चादर धीरे से लखिया के ऊपर ओढ़ा दी।

घनी अंधियारी रात का सन्नाटा चीर कर एक उल्लू चीखा, जसोदा का कलेजा दहल गया। उठकर घडे से पानी भने को हुई ही थी कि बाहर से आवाज़ आई, ''लखिया, ए लखिया।'' आवाज़ नारायण की थी, रति का पति, पर इतनी रात गए क्यों आया होगा। जसोदा को लगा जैसे अनिष्ट ने दरवाज़े पर दस्तक दी हो,
''कौन है?'' जसोदा ने प्रश्न किया,
''मैं नारायण, भाभी, लखिया है?''
''वो सो गया है। इत्ती रात गए कैसे आना हुआ भइया?'' दालान में आते हुए जसोदा ने पूछा कड़ाके की सर्दी में से शरीर में कपकपी छूट रही थी।
''भाभी। रती अब तक लौट कर नहीं आई है। कह कर गई थी शाम तक लौट आऊँगी, इतनी देर कभी नहीं करती।''
''कहाँ गई थी?''
''ढाणियों में।''
''रुक गई होगी शायद।''
''नहीं ऐसा नहीं हो सकता।''
''मुझे दो दिन से बुखार है, ऐसे में उसे रुकना समझ में नहीं आ रहा। लखिया को जगाओ हम कहीं ढूँढ़ आते हैं, देखो मोर कितने चीख रहे हैं। मुझे तो डर लगता है।''
''डरने की क्या बात है, रति जैसी लुगाई तो पूरे गाँव में नहीं है। मर्दों की भी मर्द है वो।''
''वो तो ठीक है पर जब से सरपंच मैं खड़े होने की बात चली है चौधरी को फूटी आँख नहीं सुहाती। परसों चौधरियों के छोरों ने गाली गलौज की थी। तुम लखिया को जगा भी दो।
जसोदा झोपड़ी में गई तो क्या देखती हैं, लखिया खटिया पर बैठा बीड़ी फूक रहा है- जाते ही रति से पूछा, ''कौन है?''
''नारायण।''
''इतनी रात गए क्यों आया है?''
''रति कहीं चली गई है। ढूँढ़ने के लिए...''
''तो मैं क्या करूँ? मैंने क्या रति को ढूँढ़ने का ठेका ले रखा है? जा जाकर कह दे मेरी तबीयत ठीक नहीं, खुद ही ढूँढ ले।''

लखिया की नारायण के प्रति ये बेरुखाई कुछ पसंद नहीं आई। उसने तन कर कहा,
''जब तुम बीमार पड़े थे तो दस दिन तक दवाखाने में भी पड़ा रहा था। आज जब उसको ज़रूरत है तो कहता है कि मैं नहीं जा सकता। शर्म आती के नहीं?''
''लखिया का चेहरा सख़्त हो गया। आग्नेय दृष्टि से जसोदा को देखकर बोला, ''इतनी चिंता है तो तू चली जा रति को ढूँढ़ने, वो रांड घर-घर पंचात करती घूम रही थी किसी घर में पड़ी होगी।''

''जसोदा लखिया का मतलब समझ गई थी। आज उससे कुछ न कहा गया जिसके साथ दस साल गुज़ारे हैं तो ऐसा होगा उसने कभी सोचा भी नहीं था। मन में हुआ लखिया का मुँह नोच दे। पर घर की इज़्ज़त और नारायण का ध्यान आते ही चुप हो गई। बाहर जा नारायण को विदा किया। रति को जसोदा अपना आदर्श मानती थी उसे लगता था रति साधारण स्त्री नहीं देवी है देवी। उसके शब्दों में चमत्कारिक शक्ति थी। वो नारियों को घर के अंधेरे से मुक्त करवाना चाहती थी। यही तो लड़ाई थी उसकी पर ये क्या जाने उसे इनके लिए तो स्त्री का जननांग ही सब कुछ है। जैसे उसका सारा अस्तित्व इसी में सिमट कर रह गया है। आज लखिया उसे अपने से बहुत दूर लग रहा था।

ख़बर आग की तरह फैल गई। लोगों के झुंड के झुंड कुएँ की तरफ़ जा रहे थे। पानी का घड़ा उठाए जसोदा ने जाते हुए लड़के से पूछा, ''क्या है?''
''रति मर गई।'' इतना कहकर लड़का उस दिशा में भाग गया जहाँ सब जा रहे थे। जसोदा के पैरों तले की ज़मीन खिसक गई। लड़के के शब्द दिलो-दिमाग में गूँज रहे थे- ''रति मर गई?''
जसोदा भारी मन घर पहुँची। लखिया खटिया पे बैठा-बैठा बीड़ी फूँक रहा था। उसका बेपरवाह चेहरा जसोदा को बड़ा क्रूर लगा। घड़े से पानी उड़ेलते हुए उसने कहा, ''रति नहीं रही।''
''लखिया ने बीड़ी का ज़ोरदार कस खींचा, धुएँ का गुब्बार उड़ाते हुए बोला, ''अच्छा ही हुआ मौत में शांति।''

जसोदा के हाथ से घड़ा गिरकर टुकड़े-टुकड़े हो गया। क्रोध के मारे शरीर काँपने लगा। लखिया के शब्दों में रही सही संबंधों की डोर तोड़ दी थी। घड़ा रख के घर से बाहर जाने लगी तो लखिया चिल्लाया, ''कहाँ जा रही हैं?''
''रति के घर।''
''चुपचाप घर में बैठ जाओ वरना टाँगे तोड़ दूँगी कहीं नहीं जाना.... सुन लिया तुमने?''
''आज जसोदा के शरीर में न जाने कौन-सी शक्ति आ गई थी उसने एक नज़र लखिया पे डाली जैसे उसे धिक्कार रही हो। दूसरे ही क्षण जाँपा खोलकर हनहनाती हुई बाहर हो गई। लखिया भौंचक्का-सा देखता रह गया।

गाँव भर को शक था कि रति मरी नहीं, मारी गई है। पुलिस के आत्महत्या की रिपोर्ट दर्ज की और केस फाइल कर दिया। नारायण साधारण आदमी था, उसकी कौन सुनता और फिर नारायण का साथ देकर मूर्ख ही होगा जो चौधरियों से बैर मोल लेगा। चौधरी हरीराम की कोठी पर जलसा था। उसकी राह का काँटा इतनी आसानी से निकल जाएगा, सपने में भी सोचा न था।

लखिया ने प्रणाम करते हुए कहा, ''चौधरी साहब राम राम, अब तो आपकी सरपंची पक्की, हुजूर कहीं कोई सुगबुगाहट नहीं हुई। पुरा गाँव मानता है कि रत्ती ने आत्महत्या कर ली है। न रहा बाँस न बजेगी बाँसुरी।
चौधरी ने होंठों पे अंगुली दबाते हुए लखिया से कहा, ''चुप कर, मूर्ख दीवारों के भी कान होते हैं।''
''हुजूर, अब तो नारायण का खेत मुझे दिलवा दीजिए।''
''शांति रख, अभी मामला ठंडा होने दें। वो खेत अब तेरा ही हैं न।''

लखिया का चेहरा खुशी से फूल गया। चौधरी के कदमों में अपना सर रखकर प्रार्थना करने लगा, ''जुग जुग जियो, हुजूर, जुग जुग जियो।'' गरीब अल्प धन को प्राप्त करके भी कुबेर के ख़ज़ाने की प्राप्ति के बराबर खुश होता है। असल में चौधरियों के खेत सीलींग एक्ट के तहत सरकार ने हरिजनों के नाम कर कर दिए थे। आज़ादी के पचास वर्ष बाद भी इन खेतों के असली मालिक अब भी चौधरी बने हुए हैं। रती ने नारायण के नाम वाला टुकड़ा अपने अधिकार में कर लिया था। चौधरी को ये डर था कि रती धीरे-धीरे सब को भड़का गई और अगर सरपंच बनीं तो ये काम वो बड़ी आसानी से कर देगी। रती का मरना चौधरियों के लिए आशीर्वाद था।

लखिया ये खुश ख़बरी जसोदा तो देना चाहता था। वह दौड़ता हुआ घर पहुँचा। आज तो मैं बड़ा खुश हूँ जसोदा। मेरे वर्षों का सपना पूरा हो गया। जानती हो, नारायण वाला खेत चौधरी ने अपने नाम कर दिया है।'' लखिया के चेहरे पर संतोष और सफलता की खुशी थी। जसोदा को काटों तो खून नहीं, उसे अपने कानों पर विश्वास नहीं हो रहा था। लखिया ने अब नीचता की हद पार कर दी थी। कल तक जिसकी दोस्ती की सौगंध खाता था, आज उसी का घर लूटने चला हैं। अब इस घर में उसका दम घुटने लगा था।'' लखिया के प्रति रहासहा सम्मान भी अब खत्म हो गया उसने धिक्कारते  हुए लखिया से कहा, ''भाड़ में जाए तेरा खेत और तेरा चौधरी। तू इंसान नहीं है, कुत्ता है कुत्ता, एक बात कान खोल कर सुन ले आज के बाद इस घर में चौधरी का एक दाना नहीं आएगा... वरना मैं...।''
बीड़ी को ज़मीन में बुझा कर लखिया जोश में बोला, ''वरना क्या साली क्या कर देगी। मर्दों के सामने हेकड़ी करेगी तो तेरा भी वही हाल होगा जो...।''
जसोदा ने हाथ में कुल्हाड़ी उठा ली थी। आज वो शेरा भवानी की तरह खूँखार लग रही थी। उसकी आँखों में अग्नि ज्वालाएँ फूट रही थी। लखिया ने जसोदा के इस रूप को देखा तो ... हाथ पाँव फूल गए। जोश ठंडा पड़ गया।
जसोदा फिर चीखी, ''सच बता तुमने ही रती को मारा है न? पूरे गाँव से कहूँगी हरामखोर तू हत्यारा है, हत्यारा। रती रती नहीं थी..देवी थी देवी। दुष्ट तुने ही देवी को मारा है देवी को।''

जसोदा चीखे जा रही थी। लखिए ने अरजण भूतों के यहाँ इसी तरह भूत लगे लोगों को चीखते देखा है। तो भागकर जापे से बाहर हो लिया। आसपास में आग की तरह ख़बर फैल गई। जसोदा को रती का भूत लगा है। आग पानी और ख़बर को फैलते देर नहीं लगती। कुछ ही क्षणों में सैंकड़ों का समूह इकट्ठा हो गया। लोग तरह-तरह की सलाह दे रहे थे। कुछ कह रहे थे अरजण भूते को बुलाओ। कुछ कह रहे थे डॉक्टर के पास ही जाना चाहिए। भीड़ में सबसे आगे खड़ा था- देसाई। उसने लखिए से बेतकल्लुफ़ होकर पूछा, ''कहाँ है तेरी लुगाई? प्रश्न का उत्तर जसोदा ने दिया, ''ये रही बोलो किसको काम है?''

जसोदा के मुँह में ज़बान देखकर पूरा समूह हतप्रभ-सा रह गया। उसके बाल निखरे हुए थे। उसकी आँखें लाल हो रही थी। उसने भीड़ के बीच आकर तकरीर शुरू की। भीड-भौचक्की-सी सुनने लगी, ''मार दिया रती को भी मार दिया, आप रती कल जसोदा, परसों गंगा जमना सबकी बारी आएगी। रती साधारण स्त्री नहीं थी, देवी थी देवी उसने हम सब को जगाने के लिए अपनी आवाज़ उठाई। हमें अधिकार मिले इसलिए तो लड़ती रही। खेत हम बोते हैं, धान चौधरी लेती है। पंचात हमारी हैं, सरपंच चौधरी होता है, मिट्टी का तेल सरकार देती है। पी चौधरी जाता है, कब तक? कब तक? मुर्दों की तरह जिओगे। उठो देवी रती तुम्हें उठने का आदेश दे गई हैं, बोलो रती देवी की जय। सभा में गूँज उठी- जय हो। जय हो।''

मैं बनूँगी सरपंच मैं देखती हूँ कौन-सी ताकत मुझे रोकती हैं।'' जसोदा की साँस फूल रही थी, उसका संपूर्ण शरीर काँप रहा था। लोगों में कानाफूसी होने लगी थी। ऐसी तकरीर पहले किसी से सुनी नहीं थी। ये तो कोई चमत्कारी स्त्री ही कर सकती हैं। देसाई ने खींचकर लखिया को जसोदा के सामने ला खड़ा किया। देसाई चीखा, ''दुष्ट तेरे कारण पूरे गाँव का अनिष्ट होता, जसोदा देवी तो चमत्कारी है, माफ़ी माँग उनसे।'' लखिया हाथ जोड़े बड़बड़ा रहा था। ''माफ़ कर दो माँ, मैं माफ़ी चाहता हूँ।'' भीड़ में फिर एक नारा गूँजा, ''हत्यारों को फाँसी हो फाँसी हो भई फाँसी हो।'' देवी जसोदा अमर रहे- अमर रहे भई अमर रहे।

इस गूँज ने चौधरियों के हवेलियों के कंगूरे हिला दिए, आवाज़ इतनी बुलंद थी कि हवेलियों के प्राचीर काँप उठे।

No comments:

Post a Comment