दुनिया भर में भूत-प्रेत की बातें प्रचलित हैं। कानपुर से लेकर कैलिफोर्निया तक लोग भूतो की बातें करते हैं। महफिलों, पार्टियों में होने वाली गपशप का एक अभिन्न अंग हैं यह भूत चर्चा। लोग भी एक से बढ़ कर एक दावे ठोकते हैं। कोई कहता हैं ५० साल पहले मरे आदमी को देखा तो कोई कहता हैं कि फलाने की आत्मा उससे मिलने आई थी। बहुत से लोग हंसी-हंसी में भूतो की बात टाल जाते हैं पर दिमाग के किसी कोने में भूतो के अस्तित्व पर शोध चल रहा होता हैं।
अनामदास के चिट्टे में पढ़ा कि अगर आप इश्वर में विश्वास रखते हैं तो भूतो में भी रखना पड़ेगा। यह विषय अत्यंत रहस्यमयी और रोचक हैं। कभी न कभी हरेक इन्सान को ऐसी परिस्थितियों का सामना करना पड़ता हैं कि उसका भयभीत मन न कहते हुए भी भूत की खोज करता हैं।
बात स्कूल के दिनों की हैं। स्कूल के पीछे बहुत बड़ा जंगल था। बच्चे उस जंगल में आम-शेह्तुत तोड़ने जाया करते थे। एक अलग ही तरीके का रोमांच था उस जंगल का। एक-दो अड्डे भी बने हुए थे जहाँ पर बैठकर बच्चे सिगरेट के छल्ले बनाते थे। कक्षा के भयानक वातावरण से मुक्ति दिलाता था जंगल । इधर कक्षा चल रही होती थी उधर हम एक डाल से दूसरी डाल। जेल से भागे कैदी की तरह स्वतंत्रता का जश्न मनाते हुए जंगल की व्यापकता का अनुमान लगाना मानो अपने आप में किसी साहसिक कार्य से कम नहीं था।
जंगल में घूमते हुए लघुशंका लग गयी। हरे भरे पेड़ आमंत्रण दे रहे थे परन्तु हमने कृपा करी एक झाड़ी पर। निवारण क्रिया चल ही रही थी कि झाड़ी में से कुत्ते के भोकने की आवाज आई और महाराज झाड़ी से बहार आकर हमारे पीछे लग गए। हम दो अबोध बालक अपने वस्त्रो को सम्भालते स्कूल की और भागे। भय के कारन पीछे मुड़कर देखा नहीं। जब सांस थमी तो बहस शुरू हो गयी --- कुत्ता या भेड़िया। इस बात पर सहमति थी कि जंगल की औकात इतनी नहीं की भेड़िया वहां रहे और कुत्ते की इतनी औकात नहीं की वो जंगल में आ सकें। सो न तो वो कुत्ता था न भेड़िया। वो था भूत।
पंचायत से पास होकर बात पहुची जिला स्तर पर और कक्षा में हरेक अधिकारी के कानो में पहुच गयी। बैठक बुलाई गयी। उस बैठक में एक अहम् फैसला लिया गया। कोई भी अधिकारी किसी अन्य जिला के अधिकारी को यह बात नहीं बताएगा। राज्य सरकारे अर्थात हमारे शिक्षक और केंद्रीय सरकार यानि प्रिंसिपल को इस मुद्दे से दूर रखने का प्रस्ताव भी पारित हुआ। हमारे जिला प्रशासन ने अपने स्तर पर "भूत की खोज" करने का फैसला लिया।
अगले दिन आधी घंटी जब हुई तो सभी अधिकारी निकल पड़े जंगल में अपनी जान हथेली पर रखकर। इस कार्य में महिला अधिकारियो ने भी सहर्ष भाग लिया। जंगल का चप्पा चप्पा छान मारा पर भूत का पता न लगा। निरिक्षण दल ने वापस मुड़ने का फैसला ले लिया। परन्तु अभी थोडा जंगल बाकी था। फैसला बदल दिया गया। जब १९ देख ही लिया हैं तो २० देखने में क्या जाता हैं। और चल पड़े आगे। तभी झाडियों से आवाज आई। चर्र-चर्र--शायद भूत के पैरो की आवाज थी। सब चुप गए। एक ने कहाँ भूत के पैर देखना, उलटे होंगे। तभी एक लड़का उठ कर खड़ा हो गया और बोला ---- अबे यह तो पागल माली हैं।
पागल को पागल बोला --- ले डंडा। और लड़के के सर से खून बहने लगा। सब इशारा समझ चुके थे। ----भाआआआअगो
हम २५-३० जन आगे और हमारे पीछे वो अकेला ---- ककड़ी के जैसा पागल माली हाथ में डंडा लिए खुल्ले सांड की तरह सिंग हिलाता। जब जंगल से बाहर आये तो केंद्रीय सरकार और राज्य सरकारे खड़ी हुई थी। जिस लड़के के सर से खून निकल रहा था उससे तभी प्राथमिक उपचार के लिए ले जाया गया। उसने तो माली का एक डंडा खाया था हम लोगो ने केंद्रीय सरकार के कई डंडे खाए। हाय-हाय।
फिर केंद्रीय फरमान जारी हुआ। सभी बच्चो के माता-पिता को स्कूल बुलाया गया। खूब बातें सुनने को मिली। एक लड़की के पिता ने कहा --- पढाई नहीं करनी तो बोल, तुझे बकरी खरीद कर दे देता हूँ , घर पर बैठना और बकरी पालना। कसम खायी कि आगे से जंगल तो जायेंगे पर किसी को नहीं बताएँगे। साला भूत-भूत कर के हमारा भूत बनवा दिया सबने।
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