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March 31, 2014

एक चुड़ैल - आशीष यादव

मै पश्चिम वाली कोठरी में आलमारी पर पड़े सामानों को इधर-उधर कर के देख रहा था| तभी मेरी नज़र एक निमंत्रण कार्ड पर पड़ी| कार्ड के ऊपर देखने पर पता चला की वो निमंत्रण भैया के नाम से था, प्रेषक वाली जगह के नाम से मै अनजान था| कौतुहल वश मैंने बड़ी आसानी से अन्दर के पत्र को निकाल कर देखा, अगले दिन बारात आने वाली थी| दर्शनाभिलाषी में पढने पर ज्ञात हुआ की वह निमंत्रण भैया के एक मित्र के बहन की शादी का था| मै और भैया एक ही स्कूल में पढ़े थे और उनके लगभग सारे मित्र मुझे भी जानते थे|
           
भैया उस समय घर पर नहीं थे, तीन-चार दिन के लिए कहीं गए थे| याद नहीं आ रहा  कि कहाँ गए थे| मैंने ये बात अपनी माँ से कही तो उन्होंने मुझे अगले दिन वहां जाने की अनुमति दे दी| मुझे ढंग से गाडी चलाने नहीं आती थी| अतः शाम को ही मैंने गाँव के इन्द्र देव चाचा से बात कर ली और वो राजी भी हो गए जाने के लिए| हमारे और उनके घर से खासी मित्रता थी|
           
उनका घर हमारे घर से तकरीबन तीस किलोमीटर दूर था| घर के लोगों ने कहा की वहां जाकर तुम लोगों को कुछ काम-वाम भी करना पड़ेगा , सही भी था लड़की की बारात आ रही थी| और रीति-रिवाज के तहत जब किसी लड़की के घर बारात आती है तो गाँव में सब लोग मदद के लिए आगे आते है|
           
हम दोनों लोग सुबह करीब नौ बजे घर से निकल गए थे| रास्ता सही नहीं था, सड़कें उखड गयीं थी| उस राह पर पैदल चलना भी मुश्किल था, यद्यपि  वह मुख्य मार्ग था| हम लोग कुछ आगे जाकर कट लिए, एक खडंजा पकड़ लिए| अब पहले से कहीं आराम था| सुनसान सड़क पर हम लोग चले जा रहे थे| कुछ आगे जाने पर हमें जो दिखाई पड़ा  उसे देख कर हम रुक गए| खडंजे से होकर एक पगडंडी बागीचे में जाती थी| बगीचा  बहुत बड़ा था| बहुत से लोग एकत्रित थे| भीड़ कुछ नहीं तो पाँच सौ  रही होगी| जैसे गुरुत्वाकर्षण का प्रभाव पड़े, सारे लोग उसी भीड़ की तरफ खींचे चले जा रहे थे|
           
हमने भी गाड़ी को पगडण्डी पर उतार लिया और बागीचे के एक तरफ गाड़ी खड़ी कर दी|
           
लोग बैठे थे, शांत तालाब की तरह,और जैसे छोटी मछलियाँ भरी मात्रा में उतरातीं हैं, उसी तरह की कानाफूसी चालू थी| बागीचे के बीच से थोडा हट कर एक बड़ा सा वर्गाकार क्षेत्रफल गोबर से लिपा हुआ था| उसमें कई छोटी-बड़ी मूर्तियाँ स्थापित की गयी थी| माटी की बेदीयाँ  वहाँ बनायीं गयी थीं|
           
देख कर यह समझ  में आ रहा था की कोई  पूजा  होने वाली है| लेकिन कैसी पूजा? यह हमारे लिए कौतुहल का विषय था| अंततोगत्वा  मैंने एक बुजुर्ग  से पूछ  ही लिया कि  "बाबा  ये कैसी पूजा होने वाली है| इतनी भीड़ क्यों इकठ्ठा हुई  है|"
           
बूढ़े दादा ने कहानी बतानी शुरू की तो हम सुनाने में ध्यानमग्न हो गए|
           
"बेटा, जो गाँव दिखाई दे रहा है" दक्षिण की तरफ हाथ से इशारा करते हुए कहा, " उसके पीछे एक विशाल बरगद का पेड़ है, उसी पर एक भूत रहता है | रात को वह बरगद को कभी-कभी बहुत जोर से झकझोरता है | आने जाने वालों को पहले वह बहुत परेशान करता था | परन्तु अब वह परेशान नहीं करता |' दादा ने अंतिम बात जोर देकर कही|
           
"फिर बाबा", मैंने उत्सुकता वश पूछा| उन्होंने आगे बात बतानी शुरू की|
           
"बेटा, पिछले महीने बरगद के किनारे वाले पोखरे में एक लड़की को उसने पकड़ कर डुबो दिया | लोग देखते ही रह गए | लड़की उसमे डूब कर मर गयी | मछली  मारने  वाले सभी  लड़के वहां से भाग गए | देखने वाले बताते है कि पानी  में बड़ा-बड़ा बुलबुला  निकलता था|पानी अचानक  शांत  हो जाता, अचानक घेरदार लहरें  पैदा होजाती |
             
"आगे बाबा" मेरी तरह सुनने वालों में से एक अन्य लड़के ने कौतुहल वश पूछा,
             
 “बेटा, लड़कों को हमने बहुत रोका था, बहुत मन किया था, मत जाना मछलियाँ पकड़ने, लेकिन वे न माने| आखिर चली ही गयी एक जान |"
             
"पर बाबा, लड़की को किसी ने बचाने का प्रयास नहीं किया |" मैंने सशंकित होकर पूछा|
               
"तुम नहीं समझोगे बेटा! कौन जाएगा अपनी जान देने| यह  भूत भी इसी तालाब में डूब कर मरा था| लोगों ने ये भी सुना है कि रात को ये जान मांगता था|"
               
"बाबा, लड़की तो चली गयी, जान तो उसे मिल गयी, फिर ये पूजा क्यों ?"
             
 "बेटा, उसके मरने के दुसरे ही दिन, परधान जी कि बहू और बेटी सुबह खेत से आ रही थी | बिल्कुल अँधेरा था | उसी समय एकाएक बहू को वह दिखाई दी | उसे पकड़ ली | अब छोडती ही नहीं है| बहू तभी से बीमार है |कभी हँसती है तो कभी दहाडें मार कर रोने लगती है | कभी-कभी तो नाचने भी लगती है | कभी कहती है, मै बिना जान लिए नहीं जाने वाली| कहीं कुछ अशुभ न हो जाय, फिर से किसी कि जान न चली जाय, इसलिए सोखा जी आ रहें है |"
               
मैंने चाचा से कहा कि आज देख ही लिया जाय कि कैसे पूजा होगी, और वो भी सहमत हो गए| जनता सोखा जी के आने इन्तजार कर रही थी| मै भी बहुत खुश था| नामी-गिरामी सोखा हैं| बूढ़े बाबा ने हमें बताया कि बहुत बड़े-बड़े भूतों को इन्होने बाँध कर रखा है| और भी अनेक बातें बतायीं|
               
लगभग एक बजे बजे एक चमचमाती कार आई| कार को बागीचे में आने के लिए विशेष रूम से खेत में ही लीक बनायीं गयी थी| उसमे से एक हृष्ट-पुष्ट अधेड़ उम्र युवक, धवल धोती में, शरीर पर धोती के अलावा केवल एक खादी की चादर डाले हुए निकला| चेहरे पर भयानकता,आँखें लाल-लाल, बड़ी-बड़ी भौंहे, माथे पर चौड़ा तिलक था , जो संभवतः राख और चन्दन मिश्रित था| पैरों में खडाऊं थे|

             
 "यही सोखा जी है", बूढ़े बाबा ने हमसे कहा|              
सोखा जी कार से उतरते ही खूब जोर की साँस खींचे, और चौके में आ गिरे|              
सारी जनता चुप थी| लोग केवल सोख जी के क्रिया कलापों को उत्सुकता भरी नजरो से देख रहे थे| सोखा जी कैसे आँख बंद करते, कैसे धीरे-धीरे खोलते, फिर हाथ को भींचते हुए जमीन पर प्रहार करते| पूजा सामग्री पेश होने लगी थी| बहू भी चौके में आकर यथास्थान बैठ गयी थी| सोखा जी ने मंत्र जाप शुरू किया और चौके के बायीं तरफ बैठी महिलाओं ने देवी गीत|
               
सब कुछ बहुत रोचक लग रहा था| बहू धीरे-धीरे झुमने लगी| तरह-तरह की अजीब-ओ-गरीब हरकते करने लगी| मैंने ऐसा सुना तो बहुत था, पर साक्षात् दर्शन का लाभ पहली बार उठा रहा था| मेरी उत्सुकता बढती ही जाती थी| करीब आधे घंटे तक वह झूमती रही, कुछ न बोली| इधर पूजा शुरू थी| कुछ समय बाद सोखा जी के इशारे पर देवी गीत बंद हो गयी| सोखा जी मंडप में इधर से उधर पैंतरे बदल रहे थे| कभी इस मूर्ति के पास तो कभी उस मूर्ति के पास| विशाल जन समूह शांत सागर की तरह था| कोई आदमी कुछ न बोलता| इससे तो अधिक आवाज रात के घनघोर सन्नाटे की होती है| कभी-कभी सोखा जी की गरज  सुनाई पड़ती थी|
             
आगे क्या होगा? कैसे भागेगा भूत? अभी कौन सी प्रक्रियाएं होगी? मै यही सोच रहा था, और मंडप में चल रही गतिविधियों  को देख रहा था| अचानक एक और घटना घटी| मैंने क्या, सबने देखा, सोखा जी ने एक बकरे को मंडप में लाने का आदेश दिया| धोती में, बलिष्ट काया वाले दो लोग, जिन पर रौबदार मूंछें  भी थी, बकरे को मंडप में ले आये| शराब की बोतलें भी मंडप में लायी गयीं|
             
सोखा जी ने बहु से कहना शुरू किया, " तुने आज तक इस गाँव को बहुत संकट में डाले रखा है | मै तुमसे कहता हूँ की छोड़ दे सबको | तुझे जीव चाहिए तो ले ले बलि, सबको मुक्त कर संकट से | वरना अच्छा नहीं होगा | अगर तुने गाँव नहीं छोड़ा तो मै तुम्हे नहीं बक्शुंगा |  सोखा जी व्याखान शुरू था| मै, निरीह प्राणी बकरे को देख रहा था| वो क्या कर रहे थे, मेरा ध्यान हट गया था| एक बड़ा सा स्वस्थ बकरा, टिका लगा था| वो अनजान प्राणी, बेचारा क्या जानता था की मुझे बहुत जल्दी ही दुनिया छोड़ देनी है| वो तो चना खाने में ही मशगूल था|
               
मेरी नज़र इन्द्रदेव चाचा की तरफ फिरी, उनकी नज़र केवल बकरे पर ही टिकी थी| मै भी यही सोच रहा था की यदि भुत या चुड़ैल को जीव चाहिए तो क्या वो केवल एक बकरे की बलि से संतुष्ट हो जायेंगे| यदि हाँ तो वे पहले ही क्यों न बकरे को ही पकड़ लेते हैं| उसे ही मार डालते है| या ये मनुष्य ही स्वार्थी है जो निज रक्षा के लिए एक बेजुबान को मार देता है| क्या एक बकरे की बलि से पूरा गाँव चुडैल से मुक्त हो जाएगा| मुझे इसके बारे में तो ज्यादा पता नहीं था| मैंने सोच की अगर ऐसा कने से गाँव बच सकता है तो फिर ठीक है|
               
अचानक सोखा जी की एक हरकत ने हमारा ध्यान अपनी तरफ खिंचा| वो बोतल खोलकर बहु को जबरदस्ती पिलाने की चेष्ठा करते| बहू ने पिने से इनकार कर दिया| सोखा ने लोगो को समझाते हुए कहा," देख रहे आप लोग, ये चुडैल बड़ी जिद्दी है |" पूरी जनता चुप होकर तमाशा देख रही थी| पूजा शुरू थी| सोखा जी ने सबको संकेत दिया, " मै ज्यों ही शराब को इस नीच के मुँह से लगाऊंगा, आप लोग आँखे बंद कर लीजियेगा |" , बलि देने वाले आदमियों से बोले," बहू ज्यों ही बोतल मुँह से छुएगी तुम बलि दे देना |"
               
सोखा जी ने महिलाओं की तरफ देवी गीत गाने का संकेत दिया| देवी गीत शुरू हो गयी थी| सोखा जी पूजा करने लगे| दशांग इत्यादि का धुंवा पुरे मंडप में फ़ैल गया था| सब तरफ धुंवा ही धुंवा| सोखा जी की हरकते चालू थी| वो मन्त्र पढ़े जा रहे थे, और कभी मंडप के इस कोने तो कभी मंडप के उस कोने| कभी इस मूर्ति के पास तो कभी दूसरी के पास| अचानक उन्होंने शराब की बोतल उठाई| बहू लगातार झूम रही थी| सोखा जी बहू की तरफ बढे| बलि देने वाले मनुष्यों की तरफ देखा, और फिर जनता की तरफ| लोगो ने अपनी आँखे बंद कर ली| मैंने भी अपनी आँखे बंद की|
               
एक बहुत जोर की थप की आवाज सुनाई दी, फिर धम्म की| सबने अपनी आँखे खोल ली| सब हैरान थे| सब अचरज भरी नजर से वो नजारा देख रहे थे| मेरी बगल से चाचा गायब थे| वे मंडप में थे| उनके हाथ में गड़ासा था| उनके जोरदार थप्पड़ से सोखा जी जमीन पर थे| चाचा सोखा जी के तरफ गड़ासा ताने कह रहे थे, " बोल, जब तू जानता था की ये मामला बहुत बड़ा है, तुम्हारे बस की बात नहीं है तो तुने रुपयों के चक्कर में इसे अपने हाथ में क्यों ले लिया | मै तुम्हारी बलि दूंगा तब चुड़ैल भागेगी |" मेरे सहित सब जनता हैरत में थी| चाचा ये क्या कह रहे थे| क्या वे जानते है की ये कैसा मामला है| क्या उन्हें भी सोखैती आती है| सोखा जी हाथ जोड़ लिए, और पाँव पकड़ कर गिड़गिडाने हुए कहा, " सरकार मुझे माफ़ कर दीजिये | आज से मै ये काम नहीं करूँगा |"
               
 "चल तू अब अपनी और चुड़ैलों की हकीकत बता | तभी ये जनता चाहे तो तुझे माफ़ कर सकती है |"
                 
और मंडप से बाहर आते ही मुझे कहा की मै पुलिस को फोन करूँ| मैंने वैसा तुरंत कर दिया|

सोखा ने जब हकीकत बतानी शुरू की तो लोग हैरान रह गए, क्या ऐसा भी होता है?
                 
 "हमारा एक समूह है | हम में से कुछ लोग रातों को घूमते हैं और लोगों को डरातें है | हम अधिकतर महिलाओं को अपना निशाना बनाते है | पता करते है की किस गाँव में किससे लोग डरतें  है, हमारे आदमी वैसा ही भेष बदल लेते हैं | महिलाऐं अक्सर डर जाती है | और मानसिक रूप से बीमार हो जाती है | दिमाग सही ढंग से काम नहीं करता है | कभी कभी हमारे आदमी पेड़ों पर चढ़ कर हिलाते हैं | लोग उन्हें भूत समझ जाते है | डर जाते हैं | हम लोग ही भूतों का गलत ढंग से प्रचार करते है| डरा हुआ मनुष्य जैसी भूत की बात सुनता है उसके दिमाग में वैसी ही तस्वीर बनती है|"
               
सोखा इस से आगे अपनी बात बढा पाते, जनता के सब्र का बाँध टूट गया| जनता उनके ऊपर टूट पड़ी| पीटना शुरू कर दिया| उनमे से कुछ लोग भागना चाहे| लोग उनको भी पकड़ लिए| सोखा और उनके लोग लोग बुरी तरह मार खा रहे थे| जो लोग कुछ नहीं कर पाए, उनने कार को ही अपना निशाना बनाया| सोखा और उसके साथी मार से अधमरे हो गए थे| सबसे बुरी दशा कार की थी| अब पुलिस भी आ गयी थी|
                 
चुड़ैल सोखा के गिरफ्त में नहीं आई, लेकिन सोखा जी पुलिस की गिरफ्त में आ गए थे| बहू पूरी तरह ठीक हो गयी थी| कुछ समय पहले शांत समंदर की तरह प्रतीत हो रही जनता अचानक तूफ़ान मचा गयी थी|
                 
हम लोग फिर वहाँ से चल दिए| शाम हो चुकी थी| बारात आने का समय हो चुका था|                  
और चुड़ैल.............................................

बुरे का फल बुरा ही मिलता है - रतन सिंह शेखावत

एक ठाकुर और एक नाई के बेटे में बड़ी मित्रता थी| नाई का बेटा बड़ा कुब्दी (कुटिल) व ठाकुर का बेटा बड़ा भोला था| ठाकुर और ठकुराइन के अलावा गांव के लोगों ने भी कुंवर को काफी समझाया कि नाई के बेटे से मित्रता छोड़ दो यह आपके लिए ठीक नहीं है कभी ये मित्रता आपको भारी पड़ जायेगी, पर ठाकुर के बेटे किसी की एक ना मानी| एक दिन नाई के बेटे ने कुंवर को कहा कि चलो कहीं कमाने चलते है| माँ-बाप ने कुंवर को काफी मना किया पर वह नहीं माना, और नाई के साथ चल दिया|

ठकुरानी ने सोचा बेटा रास्ते में दुःख पायेगा सो उसने चुपके से कुंवर को बीस सोने की मोहरें दे दी ताकि बुरे वक्त में काम आ जाये|

दोनों घर से विदा हो कमाने के लिए चले| रास्ते में कुंवर ने नाई से कहा - " खाने पीने की चिंता करने की जरुरत नहीं है, माँ ने मुझे बीस सोने की मोहरें दी है |" कहते हुए कुंवर ने मोहरे नाई को दिखा दी| बस नाई को तो मोहरें देखते ही मन में लालच आ गया और वह रास्ते चलते सोचने लगा कि कैसे कुंवर छुटकारा पा कर मोहरें हड़पी जाय|

चलते चलते उन्हें प्यास लगी और इधर उधर देखने पर जंगल में एक कुंवा दिखाई दिया, दोनों ने साथ में लायी रस्सी से लोटा बांध पानी निकालने के लिए लटकाया पर रस्सी थोड़ी छोटी थी सो कुंवर बोला- " मैं रस्सी पकड़ कर कुंए में झुक रहा हूँ तूं मेरे पैर कस कर पकड़े रखना ताकि झुक कर मैं पानी निकाल सकूं|"
कुंवर के झुकते ही नाई ने तो कुंवर को कुंए में धक्का दे दिया| और उसके थेले को जिसमे कपड़े व बीस मोहरें रखी थी उठाकर चलता बना|

कुंवर ने देखा पानी के ऊपर कुंए की दीवार पर एक पत्थर निकला हुआ था जिस पर वह आसानी से बैठ सकता था सो कुंवर उस पत्थर पर आकर बैठ गया| उस कुंए में दो भुत भी रहते थे|

रात होते ही दोनों भूत कुंए में आये और आपस में बात करने लगे| एक भूत बोला - " मुझे तो आजकल बहुत आनंद आ रहा है|"
"क्या बात कर रहा है यार "पेमला" कैसा आनंद ? बता तो सही| दूसरे भूत ने पुछा|

"मत पूछ "देवला"|आजकल खाने को रोज नित नया भोजन मिल रहा है| खा खाकर आनंद उड़ा रहा हूँ| पास में जो शहर है उसके राजा की बेटी के शरीर में घुस जाता हूँ और जो खाने का दिल करता है मांग लेता हूँ| राजा ने बहुतेरे झाड़ फूंक वाले बुलाये पर मैं उनसे कहाँ निकलने वाला हूँ| मुझे निकालने की जो तरकीब है कि-" कोई मनुष्य अपनी जांघ से खून निकालकर तुलसी के पत्ते पर लगाकर झाड़ फूंक करता हुआ जिसके शरीर में घुसा हूँ पर फैंके तभी मैं निकल सकता हूँ पर ये तरकीब कोई जानता नहीं और मुझे निकाल सकता नहीं |" कह कर पेमला भूत खूब हंसा|

आगे देवला भूत कहने लगा- "वाह ! तेरे तो मजे है| और मेरे भी, मैं भी आजकल सोने की मोहरों पर लेटता हूँ|"
"कैसे ? पेमला भूत ने पुछा|"

"पास ही में जो तपस्वी की बावड़ी है उसके पास जो बरगद का पेड़ है उसकी जड़ों में सोने की मोहरों का खजाना छिपा है और मैं उस पर सोता हूँ| वो पूरा खजाना मेरे कब्जे है |" देवला भूत ने पेमला भूत को बताया |
"पर किसी को पता चल गया और कोई खजाने को निकाल ले गया तो तूं तो कंगाल हो जायेगा|" पेमला भूत ने आशंका जताई |

"किसी को पता लग भी जाए तो क्या ? मुझे भगाने की तरकीब भी तो किसी को आनी चाहिए| सुन यदि कोई कड़ाह में तेल गर्म कर बरगद की जड़ में डालकर ही कोई मुझे वहां से भगा सकता है और ये कोई जानता नहीं|" देवला भूत बोला|

कुंवर दोनों की बातें छुपकर चुपचाप सुन रहा था| दिन उगते ही भूत तो वहां से चले गए और कुछ देर बाद वहां से गुजरते एक ग्वाला ने कुंए में पानी के लिए रस्सी लटकाई जिसे पकड़ कर कुंवर ने ग्वाले से उसे बाहर निकालने का आग्रह किया| विपदा में पड़े व्यक्ति की सहायता करते हुए ग्वाला ने कुंवर को कुंए से बाहर निकाल दिया|

कुंए से बाहर आते ही कुंवर ने उसी शहर की राह पकड़ी जिस शहर के राजा की राजकुमारी के शरीर में वह भूत घुसता था| राजा ने घोषणा कर रखी थी कि जो राजकुमारी के शरीर से भूत निकाल उसे मुक्त करा दे उसे मुंह माँगा इनाम मिलेगा| कुंवर ने देखा राजमहल में कई ओझा और तांत्रिक जमा थे वह सीधा राजा के पास गया और कुंवरी को भूत से मुक्त करने की जिम्मेदारी लेते हुए राजा से बोला-
"इन सब ओझाओं को यहाँ से हटाओ और मुझे कुंवरी के पास ले चलो|"

राजा ने सभी को हटाने का आदेश दे कुंवर को कुंवरी के पास ले गया , कुंवरी तो एक बड़ा थाल भर मिठाइयाँ खाने में मसगुल थी|

कुंवर ने झट से एक कटार से अपनी जंघा काट वहां से खून ले साथ में लाइ तुलसी के पत्तों पर लगाया और उसके छींटे कुंवरी पर देते हुए बोला- "पेमला ! शराफत से निकलकर भाग रहा है या पीट कर निकालूं |"

तुलसी के पत्तों से चिपके खून के छींटे पड़ते ही भूत -" बापजी जलना मत ! भाग रहा हूँ और वापस कभी नहीं आऊंगा|"कहता हुआ भाग खड़ा हुआ| भूत के निकलते ही राजकुमारी झट से ठीक हो गयी| राजा भी अपनी बेटी के ठीक होते ही बहुत खुश हुआ| उसने कुंवर को भला व खानदानी आदमी मानते हुए कुंवरी की शादी भी कुंवर के साथ करदी| अब कुंवरी व कुंवर साथ साथ राजमहल में बड़े आराम व खुशी से रहने लगे|

एक दिन कुंवर शिकार खेलने जा रहा था कि रास्ते में उसने उस नाई को बहुत बुरी व फटेहाल हालत में देखा| उसकी हालत देख कुंवर को तरस आ गया सोचा कि इसने किया तो बहुत गलत था पर है तो पुराना मित्र ही ना| सो इसकी सहायता करनी चाहिए| यही सोच कुंवर नाई को अपने साथ ले आया और उसके खाने पीने,रहने की राजमहल में व्यवस्था करवा दी|

पर नाई का स्वभाव भी बुरा ही था उसे कुंवर के ठाठ देखकर बड़ी जलन होती थी सो एक दिन मौका पाकर उसने राजा के कान भरे कि- "महाराज! आपने जिसको अपनी कुंवरी ब्याही है वह तो मेरे गांव का चमार है| मुझे खाना भी इसलिए खिलाता है कि मैं किसी को यह बात बताऊँ नहीं|"

यह सुन राजा बहुत दुखी हुआ कि उसकी बेटी चमार के घर ब्याही गयी| राजा ने कुंवर को बुलाकर डाटा कि- " चमार होते हुए तुने राजपूत बनकर कुंवरी शादी क्यों की?"
कुंवर बोला-"मैं चमार जाति का नहीं हूँ राजपूत हूँ, और मेरे पूर्वजों ने राज किया है वे भी राजा थे| उनका गाड़ा हुआ धन आज भी मेरी जानकारी में पड़ा है, कहें तो खोदकर दिखाऊं|"

और कुंवर राजा को उस तपस्वी वाली बावड़ी के बरगद के पेड़ के पास ले गया और उसकी जड़ में गर्मागर्म उकालता हुआ तेल डाला| जैसे तेल डाला वहां उपस्थित भूत भाग खड़ा हुआ और कुंवर ने खजाना खोद राजा को दिखाया| खजाना देखते ही राजा की तो आँखे फटी की फटी रह गयी इतना बड़ा खजाना तो उसके राज्य का भी नहीं था|

बस राजा की आशंका दूर हुई और फिर कुंवर व कुंवरी एक साथ मजे से रहने लगे|
एक दिन नाई ने फिर कुंवर से पुछा- " कुंवर जी मैंने आपके साथ किया तो बहुत गलत पर मित्रता के नाते मुझे माफ कर बताएं कि करतब आपने किये कैसे ?"

तब कुंवर ने नाई को कुँए वाली पूरी बात बताई| नाई लालची तो था ही, रात होते ही कुंए के अंदर जाकर बैठ गया| कि उसे भी भूतों से कुछ पता चल जाए|रात होते ही भूत आये और आपस में बात करने लगे - पेमला भूत बोला-" जबसे राजा की कुंवरी के शरीर से निकला हूँ मिठाई तो दूर रोटी का एक टुकड़ा ही नहीं मिला, भूखा मर रहा हूँ यार|"

देवला भूत बोला-" यार ऐसी ही गत अपनी बनी है,खजाना तो लोग निकाल ले गए अपन कंगले बने बैठे है|"
"जरुर अपनी बातें किसी ने सुनी है वरना किसकी मजाल जो हमारे साथ ऐसा करता|" पेमला बोला|
"हां ! लगता है ऐसा ही हुआ है , चल देखते है यहाँ कुंए में कोई है तो नहीं|" दूसरे भूत ने कहा|
और दोनों भूतों ने कुँए में झांककर देखा तो वहां नाई दुबका बैठा था| बस फिर क्या था भूत बोले- "यही है हमारा गुनाहगार, पकड़कर चीर डाले हरामखोर को|"

और भूतों ने देखते ही देखते नाई को पकड़ कर मार डाला|

इसीलिए ये कहावत सदियों से चली आ रही है -"नेकी का फल नेकी और बदी का फल बदी ही मिलता है|"

जब हम ने सच में भुत को देखा - राज भाटिय़ा

बात बहुत पुरानी है, शायद ४० साल या इस से भी ज्यादा, तब हमारा मकान बन रहा था,नयी आवादी थी, ओर सभी मकान बहुत दुर दुर थे, ओर पिता जी ने सब से पहले एक कमरा बनवाया साथ मै एक स्टोर रुम जहां पर सीमेंट ओर बाकी समान रखा जाता था, मेरी उम्र शायद १३ या १४ बर्ष की होगी,लेकिन उस समय सारी जिम्मेदारी को अच्छी तरह समझता था स्कुळ के बाद मजदुरो के संग काम करना ओर करवाना, ओर सभी मजदुरो को खुश रखना, उन्हे बीडी ओर चाय पिलाना, बदले मै वो भी काम ज्यादा करते थे.

बस युही मजदुरो के संग जब दिन बीताना तो उन से बात भी हो जाती थी, ओर बचपना भी था ही, साथ मै पिता जी ने काफ़ी निडर बना दिया था, अंध विशवास को ना मानना, भूत प्रेत को मानने की तो बात ही नही थी, ओर उसी उम्र मै हम शमशान मै भी आधी रात को डरते मरते धुम आये, ओर जादू टोने जब सडक पर मिलते तो नारियाल फ़ोड कर खाते ओर पेसो से फ़िल्म देखते.

एक राज मिस्त्री जो हमारा मकान बना रहा था, कई दिनो से वो भूत प्रेतो, चुडेल ओर रुह की बाते करता था, अब उन्होने दिन भी काटना होता था सो काम के संग संग गप्पे भी मारनी, एक दिन मेने उन्हे कहा कि दुनिया मै भूत प्रेत नही होते, बस हम लोग ही बाते बना कर ओर अपने खाव्वो मै उन्हे ला कर डरते है, मिस्त्री पिता जी की उम्र का ओर मै बच्चा होते हुये भी उन से बहस रहा था, तो उन्होने कहा बेटा ऎसी बाते नही करते, ओर बात आई गई होगई.

वो गर्मियो के दिन थे पिता जी परिवार समेत स्टोर के समाने सोते थे, कमरे मै, ओर मै खुले मेदान मै ईंटो के पास जहा लोहा बगेरा भी पडा था, ताकि कोई इन चीजो की चोरी ना करे,ओर जब मकान की छत पडनी थी, उस दिन सारा दिन काम चला ओर दोपहर दो बजे लेंटर की तेयारी पुरी हो गई, ओर सब लोगो ने घर जाना चाहा, लेकिन आसमान पर बादल बहुत आ गये लगा कि बरसात ना शुरु हो जाये, ओर मिस्त्री ने बताया की अगर रात को बरसात आ गई तो सारी तेयारी दोवारा करनी पडेगी, तो मेने कहा कि क्यो ना आज ओर अभी हम काम शुरु कर दे, ओर रात तक सारा काम खत्म हो जायेगा.अगर बरसात भी आ गई तो हम छत पर टेंट डाल देगे.

सलाह सब को पसंद आई लेकिन कई मजदुर आना कानी करने लगे, तो मेने उन्हे कहा कि तुम सब कितनी भी देर लगायो, ओर चाहे सारा काम दो तीन घंटे मै खत्म कर दो तुम्हे दो दिन की मजदुरी ओर आज शाम का खाना भी मिलेगा, ओर रात ११ बजे तक सारा काम खत्म हो गया, मजदुरी दे कर सभी लोग घर गये, ओर हम भी बहुत थक गये, ठंडी हवा चल रही थी, तो हम फ़िर से मेदान मै चादर ले कर लेते तो पता नही कब आंख लग गई.

आधी रात के समय हमे लगा कि कोई अजीब सी आवाज निकाल कर हमे बुला रहा है जेसे, फ़िर हमारे ऊपर एक दो ककरी गिरी, तो मेने हाथ बाहर निकाल कर देखा की कही बरसात तो नही आ रही, ओर फ़िर सोने लगा.... तभी मुझे लगा कि कोई मेरी चादर खींच रहा है, ओर साथ मै अजीब सी आवाज आ रही है, ओर जब मै अपनी चार पाई पर बेठा तो सामने देख कर मेरी चीख निकल गई... ओर उस के बाद मेरी बोलती बन्द मै धीरे धीरे चारपाई की दुसरी तरफ़ ही ही करता हुआ खिसकने लगा ओर मेरे बिल्कुल समाने एक सफ़ेद चादर हवा मै झुल रही है, पोर अजीब सी आवाजे आ रही है.मेरा बुरा हाल था.

तभी पिता जी की आवाज आई बेटा डर मत मै आ रहा हुं, ओर पिता जी ने एक लाठ्ठी घुमा कर फ़ेंकी... ओर वो घुमती हुयी सीधी उस भूत के सर पर लगी... ओर आवाज आई अरे बाबू जी मार दिया... ओर फ़िर मुझे अपने ऊपर बहुत गुस्सा आया असल मै वो हमारा राज मिस्त्री था, ओर छत डालने के बाद वो घर गया तो उसे कोई चीज याद आई ओर वो उसे देखने आया तो उसे शरारत सुझी ओर अपना सर तूडवा बेठा.

फ़िर पिता जी ने मुझे समझाया की आईंदा पहले सोचो अगर ऎसी स्थिति मै फ़ंस जाओ तो,डर से कुछ नही होगा, बस बहादुर बनो

आम के पेड़ वाला भूत

बनारस शहर यूँ तो  साहित्य, संगीत, शिक्षा और अध्यात्म  के लिए जाना जाता है, लेकिन कुछ एक बात और है इस शहर में जो इसको पूरी दुनिया से अलग बनता है, वो है इस शहर की मस्ती और अल्ल्हड़पन. जहाँ रिक्शा वाला और रिक्शे पे बैठने वाला दोनों गुरु होता है. "क्या गुरु लंका चलोगे ? " रिक्शा वाला  "हा गुरु काहे नहीं ? " .

इसी शहर से दस किलोमीटर दूर एक गाँव है जिसमे हमारा निर्दोष- निश्छल, खुरापाती शिरोमणि जोखुवा  रहता था.

उसी गाँव के मुंशी जी बड़े ही धर्म परायण दयावान इंसान थे. सूद पे पैसा बाटना और पूरी निष्ठां से वसूल करना कोई उनसे सीखे. दोनों समय गाँव के शिव मंदिर में जा के पूजाअर्चना करना उनका नित्य काम था साथ को  रोज अपनी लिस्ट भी भोले बाबा को पकड़ा आते थे. "इस साल के अंत तक ये कर दें प्रभु, अगले साल तक वो कर दें प्रभु". साथ में शिव के सहयोगी हनुमान जी से लोगो के लिए दया याचना  कर देते "हे बजरंग बलि रहमान की तबियत ठीक कर दो". (ताकि मरने से पहले उससे पैसा वसूला जा सके). लोगो को भुत प्रेत बता कर ओझाई कर पैसा वसूलना उनका काम था. और जिसके पास इलाज का पैसा न होता उसको खुद ब्याजी देते. डबल बिजिनस .

रहमान का लड़का फैजल, जोखुआ  का परम मित्र था. आ के समस्या बताई, पंडित रोज रोज बाबा को परेशान करता है. फिर क्या था, जोखुवा को उसका नया शिकार और प्रोजेक्ट मिल चूका था. आखिर दोस्त के लिए इतना भी न करेगा ?

दुसरे के खेत का गन्ना अपनी मेंड़ पे लाके चुसना हो या सुबह मंदिर का प्रसाद चट  करके निर्दोष भाव से अपनी कहानिया दूसरो को बताना दोनों आपस में बिना सलाह मशवरा के न करते.

एक दिन सुबह सुबह मुंशी जी पूजा  पाठ   करके वापिस लौट रहे  थे.

"क्या चाचा सुबह सुबह किसका ब्याज चढ़ा के आ रहे हो भोले को ? " जोखुवा बोला.
"चुप ससुर के नाती सुबह सुबह प्रेत पता नहीं कहाँ से गया, हे भोले मेरा दिन ठीक कर देना". पंडित जी बिदक के बोले.

" अरे हम प्रेत थोड़े न है , जिस दिन प्रेत को देख लोगे उस दिन ब्याज वाली धोती गीली हो जाएगी " जोखुवा ने फिर चुटकी ली.

" प्रेत भी तुझसे अच्छा होगा, अरे मै हनुमान जी का भक्त हूँ, यदि तू सच्चा वाला प्रेत होता तो तुझे मजा चखा देता."  मुंशी जी ने चेतावनी दी.

जाड़े  में सूर्य देवता भी ठण्ड से डर कर कुछ जल्द ही अन्ना की रजाई में घुस जाते है. एक शाम जब मुंशी जी भोले- हनुमान गठबंधन को रिश्वत दे के आ रहे थे तो झोखुवा घात लगा के मंदिर के आम वाले पेड़ पर तैनात था.

जैसे ही पेड़ के नीचे से गुजरे एक आवाज आई "मुंशी रुक जा"

"कौन है" मुंशी जी हडबडाये. एक तो शाम का समय ऊपर से आम का घना पेड़, शरीर पर काला पेंट लगाये जोखुवा को लाख कोशिशों के बजाय पंडित देख न पाए .

" मै तेरे घर के नींव वाला भुत हूँ, कुछ दिन में तेरा घर गिर जायेगा और तू मरने वाला है."

अब जो पंडित जी दूसरों का भुत भागते थे वो खुद पसीने से तर बतर हो गए उनको उनके पुरखों ने बताया था की ये घर एतिहासिक है भवन निर्माण के समय इसके नीव में बलि दी गयी थी" मैंने क्या किया प्रभु, "पंडित जी की करुणामयी आवाज निकली .

"सुना है  तू हम लोगो को प्रेत कहता है , जो प्रेत तेरे घर की नीव सम्हाले हुए है, उन्ही को बदनाम करता है, मै  तुझसे अप्रसन्न हूँ " जोखुआ अपनी हंसी दबा के बोला .

"गलती हो गयी सरकार, अब कभी न बोलूँगा, जैसा आदेश दें वैसा करूँ."   पंडित जी अपने स्वभाव अनुसार रिश्वत की तत्काल पेशकश कर दी.

"तो सुन, मंदिर बगल वाले भैरव मंदिर पे रोज  २०० रूपये और एक बोतल दारू अगले दो महीनो तक बिना नागा किये भोर के चार बजे चढ़ावा चढ़ा,  यदि एक भी दिन नागा हुआ मै तेरी नीव छोड़ के भाग जाऊंगा.  इस गाँव के सारे  प्रेतों का जिम्मा मै लेता हूँ, वो किसी को कोई कष्ट न देंगे और तू आगे से कभी किसी को बेवकूफ नहीं बनाएगा " जोखुना ने डिमांड बताई.

जिस प्रेत का नाम सुनने के बाद भी पंडित जी अपने को सम्ह्ले हुए थे, डिमांड सुनते ही बेहोश हो गए. लेकिन मरता क्या न करता.

चट जोखुवा पेड़ से उतरा, पंडित के मुह पे पानी मारा, होश आने पर मुंशी जी घबराये  की और दौड़ लगा दी, "अरे भाग पठ्ठे, पेड़वा पर  भूत   हौ"

फिर क्या था अगली सुबह से जोखुवा की शाम की दवा पक्की और जो पैसे थे रहमान चाचा को दे के धीरे धीरे उनका कर्ज उतारा.

अब मुंशी जी ने ओझाई छोड़, कथा बांचना शुरू कर दिया है. पहले से जादा सुखी भी हैं.

March 28, 2014

सिंहासन बत्तीसी - पच्चीसवीं पुतली (त्रिनेत्री)

त्रिनेत्री नामक पच्चीसवीं पुतली की कथा इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य अपनी प्रजा के सुख दुख का पता लगाने के लिए कभी-कभी वेश बदलकर घूमा करते थे तथा खुद सारी समस्या का पता लगाकर निदान करते थे।

उनके राज्य में एक दरिद्र ब्राह्मण और भाट रहते थे। वे दोनों अपना कष्ट अपने तक ही सीमित रखते हुए जीवन-यापन कर रहे थे तथा कभी किसी के प्रति कोई शिकायत नहीं रखते थे। वे अपनी गरीबी को अपना प्रारब्ध समझकर सदा खुश रहते थे तथा सीमित आय से संतुष्ट थे।

सब कुछ ठीक-ठाक चल रहा था, मगर जब भाट की बेटी विवाह योग्य हुई तो भाट की पत्नी को उसके विवाह की चिन्ता सताने लगी। उसने अपने पति से कहा कि वह पुश्तैनी पेशे से जो कमाकर लाता है उससे दैनिक खर्च तो आराम से चल जाता है, मगर बेटी के विवाह के लिए कुछ भी नहीं बच पाता है। बेटी के विवाह में बहुत खर्च आता है, अत: उसे कोई और यत्न करना होगा।

भाट यह सुनकर हँस पड़ा और कहने लगा कि बेटी उसे भगवान की इच्छा से प्राप्त हुई है, इसलिए उसके विवाह के लिए भगवान कोई रास्ता निकाल ही देंगे। अगर ऐसा नहीं होता तो हर दम्पत्ति को केवल पुत्र की ही प्राप्ति होती या कोई दम्पति संतानहीन न रहते। सब ईश्वर की इच्छा से ही होता है। दिन बीतते गए, पर भाट को बेटी के विवाह में खर्च लायक धन नहीं मिल सका। उसकी पत्नी अब दुखी रहने लगी। भाट से उसका दुख नहीं देखा गया तो वह एक दिन धन इकट्ठा करने की नीयत से निकल पड़ा। कई राज्यों का भ्रमण कर उसने सैकड़ों राज्याधिकारियों तथा बड़े-बड़े सेठों को हँसाकर उनका मनोरंजन किया तथा उनकी प्रशंसा में गीत गाए। खुश होकर उन लोगों ने जो पुरस्कार दिए उससे बेटी के विवाह लायक धन हो गया। जब वह सारा धन लेकर लौट रहा था तो रास्ते में न जाने चोरों को कैसे उसके धन की भनक लग गई। उन्होंने सारा धन लूट लिया। अब तो भाट का विश्वास भगवान पर और चाहेंगे उसके पास बेटी के ब्याह के लिए धन नहीं होगा। वह जब लौटकर घर आया तो उसकी पत्नी को आशा थी कि वह ब्याह के लिए उचित धन लाया होगा।

भाट की पत्नी को बताया कि उसके बार-बार कहने पर वह विवाह के लिए धन अर्जित करने को कई प्रदेश गया और तरह-तरह को लोगों से मिला। लोगों से पर्याप्त धन भी एकत्र कर लाया पर भगवान को उस धन से उसकी बेटी का विवाह होना मंजूर नहीं था। रास्ते में सारा धन लुटेरों ने लूट लिया और किसी तरह प्राण बचाकर वह वापस लौट आया है। भाट की पत्नी गहरी चिन्ता में डूब गई। उसने पति से पूछा कि अब बेटी का ब्याह कैसे होगा। भाट ने फिर अपनी बात दुहराई कि जिसने बेटी दी है वही ईश्वर उसके विवाह की व्यवस्था भी कर देगा। इस पर उसकी पत्नी निराशा भरी खीझ के साथ बोली कि ईश्वर लगता है महाराजा विक्रम को विवाह की व्यवस्था करने भेजेंगे। जब यह वार्तालाप हो रहा था तभी महाराज उसके घर के पास से गुज़र रहे थे। उन्हें भाट की पत्नी की टिप्पणी पर हँसी आ गई।

दूसरी तरफ ब्राह्मण अपनी आजीविका के लिए पुश्तैनी पेशा अपनाकर जैसे-तैसे गुज़र-बसर कर रहा था। वह पूजा-पाठ करवाकर जो कुछ भी दक्षिणा के रुप में प्राप्त करता उसी से आनन्दपूर्वक निर्वाह कर रहा था। ब्राह्मणी को भी तब तक सब कुछ सामान्य दिख पड़ा जब तक कि उनकी बेटी विवाह योग्य नहीं हुई। बेटी के विवाह की चिन्ता जब सताने लगी तो उसने ब्राह्मण को कुछ धन जमा करने को कहा।मगर ब्राह्मण चाहकर भी नहीं कर पाया। पत्नी के बार-बार याद दिलाने पर उसने अपने यजमानों को घुमा फिरा कर कहा भी, मगर किसी यजमान ने उसकी बात को गंभीरतापूर्वक नहीं लिया। एक दिन ब्राह्मणी तंग आकर बोली कि विवाह खर्च महाराजा विक्रमादित्य से मांगकर देखो, क्योंकि अब और कोई विकल्प नहीं है। कन्यादान तो करना ही है। ब्राह्मण ने कहा कि वह महाराज के पास ज़रुर जाएगा। महाराज धन दान करेंगे तो सारी व्यवस्था हो जाएगी। उसकी भी पत्नी के साथ पूरी बातचीत विक्रम ने सुन ली, क्योंकि उसी समय वे उसके घर के पास गुज़र रहे थे।

सुबह में उन्होंने सिपाहियों को भेजा और भाट तथा ब्राह्मण दोनों को दरबार में बुलवाया। विक्रमादित्य ने अपने हाथों से भाट को दस लाख स्वर्ण मुद्राएँ दान की। फिर ब्राह्मण को राजकोष से कुछ सौ मुद्राएँ दिलवा दी। वे दोनों अति प्रसन्न हो वहाँ से विदा हो गए। जब वे चले गए तो एक दरबारी ने महाराज से कुछ कहने की अनुमति मांगी। उसने जिज्ञासा की कि भाट और ब्राह्मण दोनों कन्या दान के लिए धन चाहते थे तो महाराज ने पक्षपात क्यों किया। भाट को दस लाख और ब्राह्मण को सिर्फ कुछ सौ स्वर्ण मुद्राएँ क्यों दी। विक्रम ने जवाब दिया कि भाट धन के लिए उनके आसरे पर नहीं बैठा था। वह ईश्वर से आस लगाये बैठा था। ईश्वर लोगों को कुछ भी दे सकते हैं, इसलिए उन्होंने उसे ईश्वर का प्रतिनिधि बनकर अप्रत्याशित दान दिया, जबकि ब्राह्मण कुलीन वंश का होते हुए भी ईश्वर में पूरी आस्था नहीं रखता था। वह उनसे सहायता की अपेक्षा रखता था। राजा भी आखिर मनुष्य है, ईश्वर का स्थान नहीं ले सकता। उन्होंने उसे उतना ही धन दिया जितने में विवाह अच्छी तरह संपन्न हो जाए। राजा का ऐसा गूढ़ उत्तर सुनकर दरबारी ने मन ही मन उनकी प्रशंसा की तथा चुप हो गया।

सिंहासन बत्तीसी - चौबीसवीं पुतली (करुणावती)

चौबीसवीं पुतली करुणावती ने जो कथा कही वह इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य का सारा समय ही अपनी प्रजा के दुखों का निवारण करने में बीतता था। प्रजा की किसी भी समस्या को वे अनदेखा नहीं करते थे। सारी समस्याओं की जानकारी उन्हें रहे, इसलिए वे भेष बदलकर रात में पूरे राज्य में, आज किसी हिस्से में, कल किसी और में घूमा करते थे। उनकी इस आदत का पता चोर-डाकुओं को भी था, इसलिए अपराध की घटनाएँ छिट-पुट ही हुआ करती थीं। विक्रम चाहते थे कि अपराध बिल्कुल मिट जाए ताकि लोग निर्भय होकर एक स्थान से दूसरे स्थान की यात्रा करें तथा चैन की नींद सो सकें। ऐसे ही विक्रम एक रात वेश बदलकर राज्य के एक हिस्से में घूम रहे थे कि उन्हें एक बड़े भवन से लटकता एक कमन्द नज़र आया। इस कमन्द के सहारे ज़रुर कोई चोर ही ऊपर की मंज़िल तक गया होगा, यह सोचकर वे कमन्द के सहारे ऊपर पहुँचे।

उन्होंने अपनी तलवार हाथों में ले ली ताकि सामना होने पर चोर को मौत के घाट उतार सकें। तभी उनके कानों में स्री की धीमी आवाज़ पड़ी "तो चोर कोई स्री है", यह सोचकर वे उस कमरे की दीवार से सटकर खड़े हो गए जहाँ से आवाज़ आ रही थी। कोई स्री किसी से बगल वाले कमरे में जाकर किसी का वध करने को कह रही थी। उसका कहना था कि बिना उस आदमी का वध किए हुए किसी अन्य के साथ उसका सम्बन्ध रखना असम्भव है। तभी एक पुरुष स्वर बोला कि वह लुटेरा अवश्य है, मगर किसी निरपराध व्यक्ति की जान लेना उसके लिए सम्भव नही है। वह स्री को अपने साथ किसी सुदूर स्थान जाने के लिए कह रहा था और उसके विश्वास दिलाने की कोशिश कर रहा था कि उसके पास इतना अधिक धन है कि बाकी बची ज़िन्दगी वे दोनों आराम से बसर कर लेंगे। वह स्री अन्त में उससे दूसरे दिन आने के लिए बोली, क्योंकि उसे धन बटोरने में कम से कम चौबीस घंटे लग जाते।

राजा समझ गए कि पुरुष उस स्री का प्रेमी है तथा स्री उस सेठ की पत्नी है जिसका यह भवन है। सेठ बगल वाले कमरे में सो रहा है और सेठानी उसके वध के लिए अपने प्रेमी को उकसा रही थी। राजा कमन्द पकडकर नीचे आ गए और उस प्रेमी का इन्तज़ार करने लगे। थोड़ी देर बाद सेठानी का प्रेमी कमन्द से नीचे आया तो राजा ने अपनी तलवार उसकी गर्दन पर रख दी तथा उसे बता दिया कि उसके सामने विक्रम खड़े हैं। वह आदमी डर से थर-थर काँपने लगा और प्राण दण्ड के भय से उसकी घिघ्घी बँध गई। जब राजा ने उसे सच बताने पर मृत्यु दण्ड न देने का वायदा किया तो उसने अपनी कहानी इस प्रकार बताई-

"मैं बचपन से ही उससे प्रेम करता था तथा उसके साथ विवाह के सपने संजोए हुए था। मेरे पास भी बहुत सारा धन था क्योंकि मेरे पिता एक बहुत ही बड़े व्यापारी थे। लेकिन मेरे सुखी भविष्य के सारे सपने धरे-के-धरे रह गए। एक दिन मेरे पिताजी का धन से भरा जहाज समुद्री डाकुओं ने लूट लिया। लूट की खबर पाते ही मेरे पिताजी के दिल को ऐसा धक्का लगा कि उनके प्राण निकल गए। हम लोग कंगाल हो गाए। मैं अपनी तबाही का कारण उन समुद्री डाकुओं को मानकर उनसे बदला लेने निकल पड़ा। कई वर्षों तक ठोकर खाने के बाद मुझे उनका पता चल ही गया। मैंने बहुत मुश्किल से उनका विश्वास जीता तथा उनके दल में शामिल हो गया। अवसर पाते ही मैं किसी एक का वध कर देता। एक-एक करके मैंने पूरे दल का सफाया कर दिया और लूट से जो धन उन्होंने एकत्र किया था वह लेकर अपने घर वापस चला आया।

घर आकर मुझे पता चला कि एक धनी सेठ से मेरी प्रेमिका का विवाह हो गया और वह अपने पति के साथ चली गई। मेरे सारे सपने बिखर गए। एक दिन उसके मायके आने की खबर मुझे मिली तो मैं खुश हो गया। वह आकर मुझसे मिलने लगी और मैंने सारा वृतान्त उसे बता दिया। एक दिन वह मुझसे मिली तो उसने कहा कि उसे मेरे पास बहुत सारा धन होने की बात पर तभी विश्वास होगा जब मैं नौलखा हार उसके गले में डाल दूँ। मैं नौलखा हार लेकर गया। तब तक वह पति के पास चली गई थी। मैंने नौलखा हार लाकर उसे पति के घर में पहना दिया तो उसने अपने पति की हत्या करने को मुझे उकसाया। मैंने उसका कहने नहीं माना क्योंकि किसी निरपराध की हत्या अपने हाथों से करना मैं भयानक पाप समझता हूँ।"

राजा विक्रमादित्य ने सच बोलने के लिए उसकी तारीफ की और समुद्री डाकुओं का सफाया करने के लिए उसका कंधा थपथपाया। उन्होंने उसे त्रिया चरित्र नहीं समझ पाने कि लिए डाँटा। उन्होंने कहा कि सच्ची प्रेमिकाएँ प्रेमी से प्रेम करती हैं उसके धन से नहीं। उसकी प्रेमिका ने उसकी प्रतीक्षा नहीं की और सम्पन्न व्यक्ति से शादी कर ली। दुबारा उससे भेंट होने पर पति से द्रोह करने से नहीं हिचकिचाई। नौलखा हार प्राप्त कर लेने के बाद भी उसका विश्वास करके उसके साथ चलने को तैयार नहीं हुई। उलटे उसके मना करने पर भी उससे निरपराध पति की हत्या करवाने को तैयार बैठी है। ऐसी निष्ठुर तथा चरित्रहीन स्री से प्रेम सिर्फ विनाश की ओर ले जाएगा।

वह आदमी रोता हुआ राजा के चरणों में गिर पड़ा तथा अपना अपराध क्षमा करने के लिए प्रार्थना करने लगा। राजा ने मृत्युदण्ड के बदले उसे वीरता और सत्यवादिता के लिए ढेरों पुरस्कार दिए। उस आदमी की आँखें खुल चुकी थीं।

दूसरे दिन रात को उस प्रेमी का भेष धरकर वे कमन्द के सहारे उसकी प्रेमिका के पास पहुँचे। उनके पहुँचते ही उस स्री ने स्वर्णाभूषणों की बड़ी सी थैली उन्हें अपना प्रेमी समझकर पकड़ा दी और बोली कि उसने विष खिलाकर सेठ को मार दिया और सारे स्वर्णाभूषण और हीरे जवाहरात चुनकर इस थैली में भर लिए। जब राजा कुछ नहीं बोले तो उसे शक हुआ और उसने नकली दाढ़ी-मूँछ नोच ली। किसी अन्य पुरुष को पाकर "चोर-चोर" चिल्लाने लगी तथा राजा को अपने पति का हत्यारा बताकर विलाप करने लगी। राजा के सिपाही और नगर कोतवाल नीचे छिपे हुए थे। वे दौड़कर आए और राजा के आदेश पर उस हत्यारी चरित्रहीन स्री को गिरफ्तार कर लिया गया। उस स्री को समझते देर नहीं लगी कि भेष बदलकर आधा हुआ पुरुष खुद विक्रम थे। उसने झट से विष की शीशी निकाली और विषपान कर लिया।

सिंहासन बत्तीसी - तेइसवीं पुतली (धर्मवती)

तेइसवीं पुतली जिसका नाम धर्मवती था, ने इस प्रकार कथा कही- एक बार राजा विक्रमादित्य दरबार में बैठे थे और दरबारियों से बातचीत कर रहे थे। बातचीत के क्रम में दरबारियों में इस बात पर बहस छिड़ गई कि मनुष्य जन्म से बड़ा होता है या कर्म से। बहस का अन्त नहीं हो रहा था, क्योंकि दरबारियों के दो गुट हो चुके थे। एक कहता था कि मनुष्य जन्म से बड़ा होता है क्योंकि मनुष्य का जन्म उसके पूर्वजन्मों का फल होता है। अच्छे संस्कार मनुष्य में वंशानुगत होते हैं जैसे राजा का बेटा राजा हो जाता है। उसका व्यवहार भी राजाओं की तरह रहता है। कुछ दरबारियों का मत था कि कर्म ही प्रधान है। अच्छे कुल में जन्मे व्यक्ति भी दुर्व्यसनों के आदी हो जाते हैं और मर्यादा के विरुद्ध कर्मों में लीन होकर पतन की ओर चले जाते हैं।

अपने दुष्कर्मों और दुराचार के चलते कोई सामाजिक प्रतिष्ठा प्राप्त नहीं करते और सर्वत्र तिरस्कार पाते हैं। इस पर पहले गुट ने तर्क दिया कि मूल संस्कार नष्ट नहीं हो सकते हैं जैसे कमल का पौधा कीचड़ में रहकर भी अपने गुण नहीं खोता। गुलाब काँटों पर पैदा होकर भी अपनी सुगन्ध नहीं खोता और चन्दन के वृक्ष पर सर्पों का वास होने से भी चन्दन अपनी सुगन्घ और शीतलता बरकरार रखता है, कभी भी विषैला नहीं होता। दोनों पक्ष अपने-अपने तर्कों द्वारा अपने को सही सिद्ध करने की कोशिश करते रहे। कोई भी अपना विचार बदलने को राज़ी नहीं था। विक्रम चुपचाप उनकी बहस का मज़ा ले रहे थे। जब उनकी बहस बहुत आगे बढ़ गई तो राजा ने उन्हें शान्त रहने का आदेश दिया और कहा कि वे प्रत्यक्ष उदाहरण द्वारा करेंगे।

उन्होंने आदेश दिया कि जंगल से एक सिंह का बच्चा पकड़कर लाया जाए। तुरन्त कुछ शिकारी जंगल गए और एक सिंह का नवजात शावक उठाकर ले आए। उन्होंने एक गड़ेरिये को बुलाया और उस नवजात शावक को बकरी के बच्चों के साथ-साथ पालने को कहा। गड़ेरिये की समझ में कुछ नहीं आया, लेकिन राजा का आदेश मानकर वह शाषक को ले गया। शावक की परवरिश बकरी के बच्चों के साथ होने लगी। वह भी भूख मिटाने के लिए बकरियों का दूध पीने लगा जब बकरी के बच्चे बड़ हुए तो घास और पत्तियाँ चरने लगे। शावक भी पत्तियाँ बड़े चाव से खाता। कुछ और बड़ा होने पर दूध तो वह पीता रहा, मगर घास और पत्तियाँ चाहकर भी नहीं खा पाता। एक दिन जब विक्रम ने उसे शावक का हाल बताने के लिए बुलाया तो उसने उन्हें बताया कि शेर का बच्चा एकदम बकरियों की तरह व्यवहार करता है।

उसने राजा से विनती की कि उसे शावक को मांस खिलाने की अनुमति दी जाए, क्योंकि शावक को अब घास और पत्तियाँ अच्छी नहीं लगती हैं। विक्रम ने साफ़ मना कर दिया और कहा कि सिर्फ दूध पर उसका पालन पोषण किया जाए। गड़ेरिया उलझन में पड़ गया। उसकी समझ में नहीं आया कि महाराज एक मांसभक्षी प्राणी को शाकाहारी बनाने पर क्यों तुले हैं। वह घर लौट आया। शावक जो कि अब जवान होने लगा था सारा दिन बकरियों के साथ रहता और दूध पीता। कभी-कभी बहुत अधिक भूख लगने पर घास-पत्तियाँ भी खा लेता। अन्य बकरियों की तरह जब शाम में उसे दरबे की तरफ हाँका जाता तो चुपचाप सर झुकाए बढ़ जाता तथा बन्द होने पर कोई प्रतिरोध नहीं करता। एक दिन जब वह अन्य बकरियों के साथ चर रहा था तो पिंजरे में बन्द एक सिंह को लाया गया। सिंह को देखते ही सारी बकरियाँ डरकर भागने लगीं तो वह भी उनके साथ दुम दबाकर भाग गया। उसके बाद राजा ने गड़ेरियें को उसे स्वतंत्र रुप से रखने को कहा। भूख लगने पर उसने खरगोश का शिकार किया और अपनी भूख मिटाई।

कुछ दिन स्वतंत्र रुप से रहने पर वह छोटे-छोटे जानवरों को मारकर खाने लगा। लेकिन गड़ेरिये के कहने पर पिंजरे में शान्तिपूर्वक बन्द हो जाता। कुछ दिनों बाद उसका बकरियों की तरह भीरु स्वभाव जाता रहा। एक दिन जब फिर से उसी शेर को जब उसके सामने लाया गया तो वह डरकर नहीं भागा। शेर की दहाड़ उसने सुनी तो वह भी पूरे स्वर से दहाड़ा। राजा अपने दरबारियों के साथ सब कुछ गौर से देख रहे थे। उन्होंने दरबारियों को कहा कि इन्सान में मूल प्रवृतियाँ शेर के बच्चे की तरह ही जन्म से होती हैं। अवसर पाकर वे प्रवृतियाँ स्वत: उजागर हो जाती हैं जैसे कि इस शावक के साथ हुआ। बकरियों के साथ रहते हुए उसकी सिंह वाली प्रवृति छिप गई थी, मगर स्वतंत्र रुप से विचरण करने पर अपने-आप प्रकट हो गई। उसे यह सब किसी ने नहीं सिखाया। लेकिन मनुष्य का सम्मान कर्म के अनुसार किया जाना चाहिए।

सभी सहमत हो गए, मगर एक मन्त्री राजा की बातों से सहमत नहीं हुआ। उसका मानना था कि विक्रम राजकुल में पैदा होने के कारण ही राजा हुए अन्यथा सात जन्मों तक कर्म करने के बाद भी राजा नहीं होते। राजा मुस्कराकर रह गए। समय बीतता रहा। एक दिन उनके दरबार में एक नाविक सुन्दर फूल लेकर उपस्थित हुआ। फूल सचमुच विलक्षण था और लोगों ने पहली बार इतना सुन्दर लाल फूल देखा था। राजा फूल के उद्गम स्थल का पता लगाने भेज दिया। वे दोनों उस दिशा में नाव से बढ़ते गए जिधर से फूल बहकर आया था। नदी की धारा कहीं अत्यधिक सँकरी और तीव्र हो जाती थी, कहीं चट्टानों के ऊपर से बहती थी। काफी दुर्गम रास्ता था। बहते-बहते नाव उस जगह पहुँची जहाँ किनारे पर एक अद्भुत दृश्य था।

एक बड़े पेड़ पर जंज़ीरों की रगड़ से उसके शरीर पर कई गहरे घाव बन गए थे। उन घावों से रक्त चू रहा था जो नदी में गिरते ही रक्तवर्ण पुष्पों में बदल जाता था। कुछ दूरी पर ही कुछ साधु बैठे तपस्या में लीन थे। जब वे कुछ और फूल लेकर दरबार में वापस लौटे तो मंत्री ने राजा को सब कुछ बताया। तब विक्रम ने उसे समझाया कि उस उलटे लटके योगी को राजा समझो और अन्य साधनारत सन्यासी उसके दरबारी हुए। पूर्वजन्म का यह कर्म उन्हें राजा या दरबारी बनाता है। अब मन्त्री को राजा की बात समझ में आ गई। उसने मान लिया कि पूर्वजन्म के कर्म के फल के रुप में ही किसी को राजगद्दी मिलती है।

सिंहासन बत्तीसी - बाइसवीं पुतली (अनुरोधवती)

अनुरोधवती नामक बाइसवीं पुतली ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य अद्भुत गुणग्राही थे। वे सच्चे कलाकारों का बहुत अधिक सम्मान करते थे तथा स्पष्टवादिता पसंद करते थे। उनके दरबार में योग्यता का सम्मान किया जाता था। चापलूसी जैसे दुर्गुण की उनके यहाँ कोई कद्र नहीं थी। यही सुनकर एक दिन एक युवक उनसे मिलने उनके द्वार तक आ पहुँचा। दरबार में महफिल सजी हुई थी और संगीत का दौर चल रहा था। वह युवक द्वार पर राजा की अनुमति का इंतज़ार करने लगा। वह युवक बहुत ही गुणी था। बहुत सारे शास्रों का ज्ञाता था। कई राज्यों में नौकरी कर चुका था। स्पष्टवक्ता होने के कारण उसके आश्रयदाताओं को वह धृष्ट नज़र आया, अत: हर जगह उसे नौकरी से निकाल दिया गया।

इतनी ठोकरे खाने के बाद भी उसकी प्रकृति तथा व्यवहार में कोई परिवर्तन नहीं आ सका। वह द्वार पर खड़ा था तभी उसके कान में वादन का स्वर पड़ा और वह बड़बड़ाया- "महफिल में बैठे हुए लोग मूर्ख हैं। संगीत का आनन्द उठा रहे है, मगर संगीत का जरा भी ज्ञान नहीं है। साज़िन्दा गलत राग बजाए जा रहा है, लेकिन कोई भी उसे मना नहीं कर रहा है।" उसकी बड़बड़ाहट द्वारपाल को स्पष्ट सुनाई पड़ी। उसका चेहरा क्रोध से लाल हो गया। उसने उसको सम्भालकर टिप्पणी करने को कहा। उसने जब उस युवक को कहा कि महाराज विक्रमादित्य खुद महफिल में बैठे है और वे बहुत बड़े कला पारखी है तो युवक ने उपहास किया। उसने द्वारपाल को कहा कि वे कला प्रेमी हो सकते हैं, मगर कला पारखी नहीं, क्योंकि साजिन्दे का दोषपूर्ण वादन उनकी समझ में नहीं आ रहा है। उस युवक ने यह भी बता दिया कि वह साज़िन्दा किस तरफ बैठा हुआ है।

अब द्वारपाल से नहीं रहा गया। उसने उस युवक से कहा कि उसे राजदण्ड मिलेगा, अगर उसकी बात सच साबित नहीं हुई। उस युवक ने उसे सच्चाई का पता लगाने के लिए कहा तथा बड़े ही आत्मविश्वास से कहा कि वह हर दण्ड भुगतने को तैयार है अगर यह बात सच नहीं साबित हुई। द्वारपाल अन्दर गया तथा राजा के कानों तक यह बात पहुँची। विक्रम ने तुरन्त आदेश किया कि वह युवक महफिल में पेश किया जाए। विक्रम के सामने भी उस युवक ने एक दिशा में इशारा करके कहा कि वहाँ एक वादक की ऊँगली दोषपूर्ण है। उस ओर बैठे सारे वादकों की ऊँगलियों का निरीक्षण किया जाने लगा। सचमुच एक वादक के अँगूठे का ऊपरी भाग कटा हुआ था और उसने उस अँगूठे पर पतली खाल चढ़ा रखी थी।
राजा उस युवक के संगीत ज्ञान के कायल हो गए। तब उन्होंने उस युवक से उसका परिचय प्राप्त किया और अपने दरबार में उचित सम्मान देकर रख लिया। वह युवक सचमुच ही बड़ा ज्ञानी और कला मर्मज्ञ था। उसने समय-समय पर अपनी योग्यता का परिचय देकर राजा का दिल जीत लिया।

एक दिन दरबार में एक अत्यंत रुपवती नर्त्तकी आई। उसके नृत्य का आयोजन हुआ और कुछ ही क्षणों में महफिल सज गई। वह युवक भी दरबारियों के बीच बैठा हुआ नृत्य और संगीत का आनन्द उठाने लगा। वह नर्त्तकी बहुत ही सधा हुआ नृत्य प्रस्तुत कर रही थी और दर्शक मुग्ध होकर रसास्वादन कर रहे थे। तभी न जाने कहाँ से एक भंवरा आ कर उसके वक्ष पर बैठ गया। नर्त्तकी नृत्य नहीं रोक सकती थी और न ही अपने हाथों से भंवरे को हटा सकती थी, क्योंकि भंगिमाएँ गड़बड़ हो जातीं। उसने बड़ी चतुरता से साँस अन्दर की ओर खींची तथा पूरे वेग से भंवरे पर छोड़ दी। अनायास निकले साँस के झौंके से भंवरा डर कर उड़ गया। क्षण भर की इस घटना को कोई भी न ताड़ सका, मगर उस युवक की आँखों ने सब कुछ देख लिया।

वह "वाह! वाह!" करते उठा और अपने गले की मोतियों की माला उस नर्त्तकी के गले में डाल दी। सारे दरबारी स्तब्ध रह गए। अनुशासनहीनता की पराकाष्ठा हो गई। राजा की उपस्थिति में दरबार में किसी और के द्वारा कोई पुरस्कार दिया जाना राजा का सबसे बड़ा अपमान माना जाता था। विक्रम को भी यह पसंद नहीं आया और उन्होंने उस युवक को इस धृष्टता के लिए कोई ठोस कारण देने को कहा। तब युवक ने राजा को भंवरे वाली सारी घटना बता दी। उसने कहा कि बिना नृत्य की एक भई भंगिमा को नष्ट किए, लय ताल के साथ सामंजस्य रखते हुए इस नर्त्तकी ने जिस सफ़ाई से भंवरे को उड़ाया वह पुरस्कार योग्य चेष्टा थी।

उसे छोड़कर किसी और का ध्यान गया ही नहीं तो पुरस्कार कैसे मिलता। विक्रम ने नर्त्तकी से पूछा तो उसने उस युवक की बातों का समर्थन किया। विक्रम का क्रोध गायब हो गया और उन्होंने नर्त्तकी तथा उस युवक- दोनों की बहुत तारीफ की। अब उनकी नज़र में उस युवक का महत्व और बढ़ गया। जब भी कोई समाधान ढूँढना रहता उसकी बातों को ध्यान से सुना जाता तथा उसके परामर्श को गंभीरतापूर्वक लिया जाता।

एक बार दरबार में बुद्धि और संस्कार पर चर्चा छिड़ी। दरबारियों का कहना था कि संस्कार बुद्धि से आते है, पर वह युवक उनसे सहमत नहीं था। उसका कहना था कि सारे संस्कार वंशानुगत होते हैं। जब कोई मतैक्य नहीं हुआ तो विक्रम ने एक हल सोचा। उन्होंने नगर से दूर हटकर जंगल में एक महल बनवाया तथा महल में गूंगी और बहरी नौकरानियाँ नियुक्त कीं। एक-एक करके चार नवजात शिशुओं को उस महल में उन नौकरानियों की देखरेख में छोड़ दिया गया। उनमें से एक उनका, एक महामंत्री का, एक कोतवाल का तथा एक ब्राह्मण का पुत्र था। बारह वर्ष पश्चात् जब वे चारों दरबार में पेश किए गए तो विक्रम ने बारी-बारी से उनसे पूछा- "कुशल तो है?" चारों ने अलग-अलग जवाब दिए। राजा के पुत्र ने "सब कुशल है" कहा जबकि महामंत्री के पुत्र ने संसार को नश्वर बताते हुए कहा "आने वाले को जाना है तो कुशलता कैसी?" कोतवाल के पुत्र ने कहा कि चोर चोरी करते है और बदनामी निरपराध की होती है।

ऐसी हालत में कुशलता की सोचना बेमानी है। सबसे अन्त में ब्राह्मण पुत्र का जवाब था कि आयु जब दिन-ब-दिन घटती जाती है तो कुशलता कैसी। चारों के जवाबों को सुनकर उस युवक की बातों की सच्चाई सामने आ गई। राजा का पुत्र निश्चिन्त भाव से सब कुछ कुशल मानता था और मंत्री के पुत्र ने तर्कपूर्ण उत्तर दिया। इसी तरह कोतवाल के पुत्र ने न्याय व्यवस्था की चर्चा की, जबकि ब्राह्मण पुत्र ने दार्शनिक उत्तर दिया। सब वंशानुगत संस्कारों के कारण हुआ। सबका पालन पोषण एक वातावरण में हुआ, लेकिन सबके विचारों में अपने संस्कारों के अनुसार भिन्नता आ गई। सभी दरबारियों ने मान लिया कि उस युवक का मानना बिल्कुल सही है।

सिंहासन बत्तीसी - इक्कीसवीं पुतली (चन्द्रज्योति)

चन्द्रज्योति नामक इक्कीसवीं पुतली की कथा इस प्रकार है- एक बार विक्रमादित्य एक यज्ञ करने की तैयारी कर रहे थे। वे उस यज्ञ में चन्द्र देव को आमन्त्रित करना चाहते थे। चन्द्रदेव को आमन्त्रण देने कौन जाए- इस पर विचार करने लगे। काफी सोच विचार के बाद उन्हें लगा कि महामंत्री ही इस कार्य के लिए सर्वोत्तम रहेंगे। उन्होंने महामंत्री को बुलाकर उनसे विमर्श करना शुरु किया। तभी महामंत्री के घर का एक नौकर वहाँ आकर खड़ा हो गया। महामंत्री ने उसे देखा तो समझ गए कि अवश्य कोई बहुत ही गंभीर बात है अन्यथा वह नौकर उसके पास नहीं आता। उन्होंने राजा से क्षमा मांगी और नौकर से अलग जाकर कुछ पूछा। जब नौकर ने कुछ बताया तो उनका चेहरा उतर गया और वे राजा से विदा लेकर वहाँ से चले गए।

महामंत्री के अचानक दुखी और चिन्तित होकर चले जाने पर राजा को लगा कि अवश्य ही महामंत्री को कोई कष्ट है। उन्होंने नौकर से उनके इस तरह जाने का कारण पूछा तो नौकर हिचकिचाया। जब राजा ने आदेश दिया तो वह हाथ जोड़कर बोला कि महामंत्री जी ने मुझे आपसे सच्चाई नहीं बताने को कहा था। उन्होंने कहा था कि सच्चाई जानने के बाद राजा का ध्यान बँट जाएगा और जो यज्ञ होने वाला है उसमें व्यवधान होगा। राजा ने कहा कि महामंत्री उनके बड़े ही स्वामिभक्त सेवक हैं और उनका भी कर्त्तव्य है कि उनके कष्ट का हर संभव निवारण करें।

तब नौकर ने बताया कि महामंत्री जी की एकमात्र पुत्री बहुत लम्बे समय से बीमार है। उन्होंने उसकी बीमारी एक से बढ़कर एक वैद्य को दिखाई, पर कोई भी चिकित्सा कारगर नहीं साबित हुई। दुनिया की हर औषधि उसे दी गई, पर उसकी हालत बिगड़ती ही चली गई। अब उसकी हालत इतनी खराब हो चुकी है कि वह हिल-डुल नहीं सकती और मरणासन्न हो गई है।

विक्रमादित्य ने जब यह सुना तो व्याकुल हो गए। उन्होंने राजवैद्य को बुलवाया और जानना चाहा कि उसने महामंत्री की पुत्री की चिकित्सा की है या नही। राजवैद्य ने कहा कि उसकी चिकित्सा केवल ख्वांग बूटी से की जा सकती है। दुनिया की अन्य कोई औषधि कारगर नहीं हो सकती। ख्वांग बूटी एक बहुत ही दुर्लभ औषधि है जिसे ढूँढ़कर लाने में कई महीने लग जाएँगे।

राजा विक्रमादित्य ने यह सुनकर कहा- "तुम्हें उस स्थान का पता है जहाँ यह बूटी मिलती है?" राज वैद्य ने बताया कि वह बूटी नीलरत्नगिरि की घाटियों में पाई जाती है लेकिन उस तक पहुँचना बहुत ही कठिन है। रास्ते में भयंकर सपं, बिच्छू तथा हिंसक जानवर भरे बड़े हैं। राजा ने यह सुनकर उससे उस बूटी की पहचान बताने को कहा। राज वैद्य ने बताया कि वह पौधा आधा नीला आधा पीला फूल लिए होता है तथा उसकी पत्तियाँ लाजवन्ती के पत्तों की तरह स्पर्श से सकुचा जाती हैं।

विक्रम यज्ञ की बात भूलकर ख्वांग बूटी की खोज में जाने का निर्णय कर बैठे। उन्होंने तुरन्त काली के दिए गए दोनों बेतालों का स्मरण किया। बेताल उन्हें आनन-फानन में नीलरत्नगिरि की ओर ले चले। पहाड़ी पर उन्हें उतारकर बेताल अदृश्य हो गए। राजा घाटियों की ओर बढ़ने लगे। घाटियों में एकदम अंधेरा था। चारों ओर घने जंगल थे। राजा बढ़ते ही रहे। एकाएक उनके कानों में सिंह की दहाड़ पड़ी। वे सम्भल पाते इसके पहले ही सिंह ने उन पर आक्रमण कर दिया।

राजा ने बिजली जैसी फुर्ती दिखाकर खुद को तो बचा लिया, मगर सिंह उनकी एक बाँह को घायल करने में कामयाब हो गया। सिंह दुबारा जब उन पर झपटा तो उन्होंने भरपूर प्रहार से उसके प्राण ले लिए। उसे मारकर जब वे आगे बढ़े तो रास्ते पर सैकड़ों विषधर दिखे। विक्रम तनिक भी नहीं घबराए और उन्होंने पत्थरों की वर्षा करके साँपों को रास्ते से हटा दिया। उसके बाद वे आगे की ओर बढ़ चले। रास्ते में एक जगह इन्हें लगा कि वे हवा में तैर रहे है। ध्यान से देखने पर उन्हें एक दैत्याकार अजगर दिखा। वे समझ गए कि अजगर उन्हें अपना ग्रास बना रहा है। ज्योंहि वे अजगर के पेट में पहुँचे कि उन्होंने अपनी तलवार से अजगर का पेट चीर दिया और बाहर आ गए। तब तक गर्मी और थकान से उनका बुरा हाल हो गया। अंधेरा भी घिर आया था। उन्होंने एक वृक्ष पर चढ़कर विश्राम किया। ज्योंहि सुबह हुई वे ख्वांग बूटी की खोज में इधर-उधर घूमने लगे। उसकी खोज में इधर-उधर भटकते न जाने कब शाम हो गई और अंधेरा छा गया।

अधीर होकर उन्होंने कहा- "काश, चन्द्रदेव मदद करते!" इतना कहना था कि मानों चमत्कार हो गया। घाटियों में दूध जैसी चाँदनी फैल गई। अन्धकार न जाने कहाँ गायब हो गया। सारी चीज़े ऐसी साफ दिखने लगीं मानो दिन का उजाला हो। थोड़ी दूर बढ़ने पर ही उन्हें ऐसे पौधे की झाड़ी नज़र आई जिस पर आधे नीले आधे पीले फूल लगे थे। उन्होंने पत्तियाँ छूई तो लाजवंती की तरह सकुचा गई। उन्हें संशय नहीं रहा। उन्होंने ख्वांग बूटी का बड़ा-सा हिस्सा काट लिया। वे बूटी लेकर चलने ही वाले थे कि दिन जैसा उजाला हुआ और चन्द्र देव सशरीर उनके सम्मुख आ खड़े हुए। विक्रम ने बड़ी श्रद्धा से उनको प्रणाम किया। चन्द्रदेव ने उन्हें अमृत देते हुए कहा कि अब सिर्फ अमृत ही महामंत्री की पुत्री को जिला सकता है।

उनकी परोपकार की भावना से प्रभावित होकर वे खुद अमृत लेकर उपस्थित हुए हैं। उन्होंने जाते-जाते विक्रम को समझाया कि उनके सशरीर यज्ञ में उपस्थित होने से विश्व के अन्य भागों में अंधकार फैल जाएगा, इसलिए वे उनसे अपने यज्ञ में उपस्थित होने की प्रार्थना नहीं करें। उन्होंने विक्रम को यज्ञ अच्छी तरह सम्पन्न कराने का आशीर्वाद दिया और अन्तध्र्यान हो गए। विक्रम ख्वांग बूटी और अमृत लेकर उज्जैन आए। उन्होंने अमृत की बून्दें टपकाकर महामंत्री की बेटी को जीवित किया तथा ख्वांग बूटी जनहीत के लिए रख लिया। चारों ओर उनकी जय-जयकार होने लगी।

March 22, 2014

सिंहासन बत्तीसी - बीसवीं पुतली (ज्ञानवती)

बीसवीं पुतली ज्ञानवती ने जो कथा सुनाई वह इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य सच्चे ज्ञान के बहुत बड़े पारखी थे तथा ज्ञानियों की बहुत कद्र करते थे। उन्होंने अपने दरबार में चुन-चुन कर विद्वानों, पंडितों, लेखकों और कलाकारों को जगह दे रखी थी तथा उनके अनुभव और ज्ञान का भरपूर सम्मान करते थे। एक दिन वे वन में किसी कारण विचरण कर रहे थे तो उनके कानों में दो आदमियों की बातचीत का कुछ अंश पड़ा। उनकी समझ में आ गया कि उनमें से एक ज्योतिषी है तथा उन्होंने चंदन का टीका लगाया और अन्तध्र्यान हो गए। ज्योतिषी अपने दोस्त को बोला- "मैंने ज्योतिष का पूरा ज्ञान अर्जित कर लिया है और अब मैं तुम्हारे भूत, वर्तमान और भविष्य के बारे में सब कुछ स्पष्ट बता सकता हूँ।"

दूसरा उसकी बातों में कोई रुचि न लेता हुआ बोला- "तुम मेरे भूत और वर्तमान से पूरी तरह परिचित हो इसलिए सब कुछ बता सकते हो और अपने भविष्य के बारे में जानने की मेरी कोई इच्छा नहीं है। अच्छा होता तुम अपना ज्ञान अपने तक ही सीमित रखते।" मगर ज्योतिषी रुकने वाला नहीं था। वह बोला- "इन बिखरी हुई हड्डियों को देख रहे है। मैं इन हड्डियों को देखते हुए बता सकता हूँ कि ये हड्डियाँ किस जानवर की हैं तथा जानवर के साथ क्या-क्या बीता।" लेकिन उसके दोस्त ने फिर भी उसकी बातों में अपनी रुचि नहीं जताई। तभी ज्योतिषी की नज़र ज़मीन पर पड़ी पद चिन्हों पर गई। उसने कहा- "ये पद चिन्ह किसी राजा के हैं और सत्यता की जाँच तुम खुद कर सकते हो। ज्योतिष के अनुसार राजा के पाँवों में ही प्राकृतिक रुप से कमल का चिन्ह होता है जो यहाँ स्पष्ट नज़र आ रहा है।"

उसके दोस्त ने सोचा कि सत्यता की जाँच कर ही ली जाए, अन्यथा यह ज्योतिषी बोलता ही रहेगा। पद चिन्हों का अनुसरण करते-करते वे जंगल में अन्दर आते गए। जहाँ पद चिन्ह समाप्त होते थे वहाँ कुल्हाड़ी लिए एक लकड़हारा खड़ा था तथा कुल्हाड़ी से एक पेड़ काट रहा था। ज्योतिषी ने उसे अपने पाँव दिखाने को कहा। लकड़हारे ने अपने पाँव दिखाए तो उसका दिमाग चकरा गया। लकड़हारे के पाँवों पर प्राकृतिक रुप से कमल के चिन्ह थे। ज्योतिषी ने जब उससे उसका असली परिचय पूछा तो वह लकड़हारा बोला कि उसका जन्म ही एक लकड़हारे के घर हुआ है तथा वह कई पुश्तों से यही काम कर रहा है। ज्योतिषी सोच रहा था कि वह राजकुल का है तथा किसी परिस्थितिवश लकड़हारे का काम कर रहा है।

अब उसका विश्वास अपने ज्योतिष ज्ञान से उठने लगा। उसका दोस्त उसका उपहास करने लगा तो वह चिढ़कर बोला- "चलो चलकर राजा विक्रमादित्य के पाँव देखते हैं। अगर उनके पाँवों पर कमल चिन्ह नहीं हुआ तो मैं समूचे ज्योतिष शास्र को झूठा समझूंगा और मान लूंगा कि मेरा ज्योतिष अध्ययन बेकार चला गया।" वे लकड़हारे को छोड़ उज्जैन नगरी को चल पड़े। काफी चलने के बाद राजमहल पहुँचे। राजकमल पहुँच कर उन्होंने विक्रमादित्य से मिलने की इच्छा जताई। जब विक्रम सामने आए तो उन्होंने उनसे अपना पैर दिखाने की प्रार्थना की। विक्रम का पैर देखकर ज्योतिषी सन्न रह गया। उनके पाँव भी साधारण मनुष्यों के पाँव जैसे थे। उन पर वैसी ही आड़ी-तिरछी रेखाएँ थीं। कोई कमल चिन्ह नहीं था। ज्योतिषी को अपने ज्योतिष ज्ञान पर नही, बल्कि पूरे ज्योतिष शास्र पर संदेह होने लगा। वह राजा से बोला- "ज्योतिष शास्र कहता है कि कमलचिन्ह जिसके पाँवों में मौजूद हों वह व्यक्ति राजा होगा ही मगर यह सरासर असत्य है।

जिसके पाँवों पर मैनें ये चिन्ह देखे वह पुश्तैनी लकड़हारा है। दूर-दूर तक उसका सम्बन्ध किसी राजघराने से नहीं है। पेट भरने के लिए जी तोड़ मेहनत करता है तथा हर सुख-सुविधा से वंचित है। दूसरी ओर आप जैसा चक्रवत्तीं सम्राट है जिसके भाग्य में भोग करने वाली हर चीज़ है। जिसकी कीर्कित्त दूर-दूर तक फैली हुई है। आपको राजाओं का राजा कहा जाता है मगर आपके पाँवों में ऐसा कोई चिन्ह मौजूद नहीं है।" राजा को हँसी आ गई और उन्होंने पूछा- "क्या आपका विश्वास अपने ज्ञान तथा विद्या पर से उठ गया?" ज्योतिषी ने जवाब दिया- "बिल्कुल। मुझे अब रत्ती भर भी विश्वास नहीं रहा।" उसने राजा से नम्रतापूर्वक विदा लेते हुए अपने मित्र से चलने का इशारा किया। जब वह चलने को हुआ तो राजा ने उसे रुकने को कहा।

दोनों ठिठक कर रुक गए। विक्रम ने एक चाकू मंगवाया तथा पैरों के तलवों को खुरचने लगे। खुरचने पर तलवों की चमड़ी उतर गई और अन्दर से कमल के चिन्ह स्पष्ट हो गए। ज्योतिषी को हतप्रभ देख विक्रम ने कहा- "हे ज्योतिषी महाराज, आपके ज्ञान में कोई कमी नहीं है। लेकिन आपका ज्ञान तब तक अधूरा रहेगा, जब तक आप अपने ज्ञान की डींगें हाँकेंगे और जब-तब उसकी जाँच करते रहेंगे। मैंने आपकी बातें सुन लीं थीं और मैं ही जंगल में लकड़हारे के वेश में आपसे मिला था। मैंने आपकी विद्वता की जाँच के लिए अपने पाँवों पर खाल चढ़ा ली थी, ताकि कमल की आकृति ढ्ँक जाए। आपने सब कमल की आकृति नहीं देखी तो आपका विश्वास ही अपनी विद्या से उठ गया। यह अच्छी बात नहीं हैं।"

ज्योतिषी समझ गया राजा क्या कहना चाहते हैं। उसने तय कर लिया कि वह सच्चे ज्ञान की जाँच के भौंडे तरीकों से बचेगा तथा बड़बोलेपन से परहेज करेगा।

सिंहासन बत्तीसी - उन्नीसवीं पुतली (रुपरेखा)

यह सिंहासन बत्तीसी की उन्नीसवीं पुतली थी। उसके द्वारा राजा भोज को सुनाई गई कथा इस प्रकार है।

राजा विक्रमादित्य के दरबार में लोग अपनी समस्याएँ लेकर न्याय के लिए तो आते ही थे कभी-कभी उन प्रश्नों को लेकर भी उपस्थित होते थे जिनका कोई समाधान उन्हें नहीं सूझता था। विक्रम उन प्रश्नों का ऐसा सटीक हल निकालते थे कि प्रश्नकर्त्ता पूर्ण सन्तुष्ट हो जाता था। ऐसे ही एक टेढ़े प्रश्न को लेकर एक दिन दो तपस्वी दरबार में आए और उन्होंने विक्रम सो अपने प्रश्न का उत्तर देने की विनती की। उनमें से एक का मानना था कि मनुष्य का मन ही उसके सारे क्रिया-कलाप पर नियंत्रण रखता है और मनुष्य कभी भी अपने मन के विरुद्ध कुछ भी नहीं कर सकता है। दूसरा उसके मत से सहमत नहीं था। उसका कहना था कि मनुष्य का ज्ञान उसके सारे क्रिया-कलाप नियंत्रित करता है। मन भी ज्ञान का दास है और वह भी ज्ञान द्वारा दिए गए निर्देशों का पालन करने को बाध्य है।

राजा विक्रमादित्य ने उनके विवाद के विषय को गौर से सुना पर तुरन्त उस विषय पर अपना कोई निर्णय नहीं दे पाए। उन्होंने उन दोनों तपस्वियों को कुछ समय बाद आने को कहा। जब वे चले गए तो विक्रम उनके प्रश्न के बारे में सोचने लगे जो सचमुच ही बहुत टेढ़ा था। उन्होंने एक पल सोचा कि मनुष्य का मन सचमुच बहुत चंचल होता है और उसके वशीभूत होकर मनुष्य सांसारिक वासना के अधीन हो जाता है। मगर दूसरे ही पल उन्हें ज्ञान की याद आई। उन्हें लगा कि ज्ञान सचमुच मनुष्य को मन का कहा करने से पहले विचार कर लेने को कहता है और किसी निर्णय के लिए प्रेरित करता है।

विक्रम ऐसे उलझे सवालों का जवाब सामान्य लोगों की ज़िन्दगी में खोजते थे, इसलिए वे साधारण नागरिक का वेश बदलकर अपने राज्य में निकल पड़े। उन्हें कई दिनों तक ऐसी कोई बात देखने को नहीं मिली जो प्रश्न को हल करने में सहायता करती। एक दिन उनकी नज़र एक ऐसे नौजवान पर पड़ी जिसके कपड़ों और भावों में उसकी विपन्नता झलकती थी। वह एक पेड़ के नीचे थककर आराम कर रहा था। बगल में एक बैलगाड़ी खड़ी थी जिसकी वह कोचवानी करता था।

राजा ने उसके निकट जाकर देखा तो वे उसे एक झलक में ही पहचान गए. वह उनके अभिन्न मित्र सेठ गोपाल दास का छोटा बेटा था। सेठ गोपाल दास बहुत बड़े व्यापारी थे और उन्होंने व्यापार से बहुत धन कमाया था। उनके बेटे की यह दुर्दशा देखकर उनकी जिज्ञासा बढ़ गई। उसकी बदहाली का कारण जानने को उत्सुक हो गये। उन्होंने उससे पूछा कि उसकी यह दशा कैसे हुई जबकि मरते समय गोपाल दास ने अपना सारा धन और व्यापार अपने दोनों पुत्रों में समान रुप से बाँट दिया था। एक के हिस्से का धन इतना था कि दो पुश्तों तक आराम से ज़िन्दगी गुज़ारी जा सकती थी। विक्रम ने फिर उसके भाई के बारे में भी जानने की जिज्ञासा प्रकट की।

युवक समझ गया कि पूछने वाला सचमुच उसके परिवार के बारे में सारी जानकारी रखता है। उसने विक्रम को अपने और अपने भाई के बारे में सब कुछ बता दिया। उसने बताया कि जब उसके पिता ने उसके और उसके भाई के बीच सब कुछ बाँट दिया तो उसके भाई ने अपने हिस्से के धन का उपयोग बड़े ही समझदारी से किया। उसने अपनी ज़रुरतों को सीमित रखकर सारा धन व्यापार में लगा दिया और दिन-रात मेहनत करके अपने व्यापार को कई गुणा बढ़ा लिया। अपने बुद्धिमान और संयमी भाई से उसने कोई प्रेरणा नहीं ली और अपने हिस्से में मिले अपार धन को देखकर घमण्ड से चूर हो गए। शराबखोरी, रंडीबाजी जुआ खेलना समेत सारी बुरी आदतें डाल लीं। ये सारी आदतें उसके धन के भण्डार के तेज़ी से खोखला करने लगीं। बड़े भाई ने समय रहते उसे चेत जाने को कहा, लेकिन उसकी बातें उसे विष समान प्रतीत हुईं।

ये बुरी आदतें उसे बहुत तेज़ी से बरबादी की तरफ ले गईं और एक वर्ष के अन्दर वह कंगाल हो गया। वह अपने नगर के एक सम्पन्न और प्रतिष्ठित सेठ का पुत्र था, इसलिए उसकी बदहाली का सब उपहास करने लगे। इधर भूखों मरने की नौबत, उधर शर्म से मुँह छुपाने की जगह नही। उसका जीना दूभर हो गया। अपने नगर में मजदूर की हैसियत से गुज़ारा करना उसे असंभव लगा तो वहाँ से दूर चला आया। मेहनत-मजदूरी करके अब अपना पेट भरता है तथा अपने भविष्य के लिए भी कुछ करने की सोचता है। धन जब उसके पास प्रचुर मात्रा में था तो मन की चंचलता पर वह अंकुश नहीं लगा सका। धन बरबाद हो जाने पर उसे सद्बुद्धि आई और ठोकरें खाने के बाद अपनी भूल का एहसास हुआ। जब राजा ने पूछा क्या वह धन आने पर फिर से मन का कहा करेगा तो उसने कहा कि ज़माने की ठोकरों ने उसे सच्चा ज्ञान दे दिया है और अब उस ज्ञान के बल पर वह अपने मन को वश में रख सकता है।

विक्रम ने तब जाकर उसे अपना असली परिचय दिया तथा उसे कई स्वर्ण मुद्राएँ देकर होशियारी से व्यापार करने की सलाह दी। उन्होंने उसे भरोसा दिलाया कि लग्न शीलता उसे फिर पहले वाली समृद्धि वापस दिला देगी। उससे विदा लेकर वे अपने महल लौट आए क्योंकि अब उनके पास उन तपस्विओं के विवाद का समाधान था। कुछ समय बाद उनके दरबार में वे दोनों तपस्वी समाधान की इच्छा लिए हाज़िर हुए। विक्रम ने उन्हें कहा कि मनुष्य के शरीर पर उसका मन बार-बार नियंत्रण करने की चेष्टा करता है पर ज्ञान के बल पर विवेकशील मनुष्य मन को अपने पर हावी नहीं होने देता है।

मन और ज्ञान में अन्योनाश्रय सम्बन्ध है तथा दोनों का अपना-अपना महत्व है। जो पूरी तरह अपने मन के वश में हो जाता है उसका सर्वनाश अवश्यम्भावी है। मन अगर रथ है तो ज्ञान सारथि। बिना सारथि रथ अधूरा है। उन्होंने सेठ पुत्र के साथ जो कुछ घटा था उन्हें विस्तारपूर्वक बताया तो उनके मन में कोई संशय नहीं रहा। उन तपस्वियों ने उन्हें एक चमत्कारी खड़िया दिया जिससे बनाई गई तस्वीरें रात में सजीव हो सकती थीं और उनका वार्त्तालाप भी सुना जा सकता था।

विक्रम ने कुछ तस्वीरें बनाकर खड़िया की सत्यता जानने की कोशिश की तो सचमुच खड़िया में वह गुण था। अब राजा तस्वीरे बना-बना कर अपना मन बहलाने लगे। अपनी रानियों की उन्हें बिल्कुल सुधि नहीं रही। जब रानियाँ कई दिनों के बाद उनके पास आईं तो राजा को खड़िया ने चित्र बनाते हुए देखआ। रानियों ने आकर उनका ध्यान बँटाया तो राजा को हँसी आ गई और उन्होंने कहा वे भी मन के आधीन हो गए थे। अब उन्हें अपने कर्त्तव्य का ज्ञान हो चुका है।

सिंहासन बत्तीसी - अठारहवीं पुतली (तारामती)

अठारहवीं पुतली तारामती की कथा इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य की गुणग्राहिता का कोई जवाब नहीं था। वे विद्वानों तथा कलाकारों को बहुत सम्मान देते थे। उनके दरबार में एक से बढ़कर एक विद्वान तथा कलाकार मौजूद थे, फिर भी अन्य राज्यों से भी योग्य व्यक्ति आकर उनसे अपनी योग्यता के अनुरुप आदर और पारितोषिक प्राप्त करते थे। एक दिन विक्रम के दरबार में दक्षिण भारत के किसी राज्य से एक विद्वान आशय था कि विश्वासघात विश्व का सबसे नीच कर्म है। उसने राजा को अपना विचार स्पष्ट करने के लिए एक कथा सुनाई। उसने कहा- आर्याव में बहुत समय पहले एक राजा था। उसका भरा-पूरा परिवार था, फिर भी सत्तर वर्ष की आयु में उसने एक रुपवती कन्या से विवाह किया। वह नई रानी के रुप पर इतना मोहित हो गया कि उससे एक पल भी अलग होने का उसका मन नहीं करता था।

वह चाहता था कि हर वत उसका चेहरा उसके सामने रहे। वह नई रानी को दरबार में भी अपने बगल में बिठाने लगा। उसके सामने कोई भी कुछ बोलने का साहस नहीं करता, मगर उसके पीठ पीछे सब उसका उपहास करते। राजा के महामन्त्री को यह बात बुरी लगी। उसने एकांत में राजा से कहा कि सब उसकी इस की आलोचना करते हैं। अगर वह हर पल नई रानी का चेहरा देखता रहना चाहता है तो उसकी अच्छी-सी तस्वीर बनवाकर राजसिंहासन के सामने रखवा दे। चूँकि इस राज्य में राजा के अकेले बैठने की परम्परा रही है, इसलिए उसका रानी को दरबार में अपने साथ लाना अशोभनीय है।

महामन्त्री राजा का युवाकाल से ही मित्र जैसा था और राजा उसकी हर बात को गंभीरतापूर्वक लेता था। उसने महामन्त्री से किसी अच्छे चित्रकार को छोटी रानी के चित्र को बनाने का काम सौंपने को कही। महामन्त्री ने एक बड़े ही योग्य चित्रकार को बुलाया। चित्रकार ने रानी का चित्र बनाना शुरु कर दिया। जब चित्र बनकर राजदरबार आया, तो हर कोई चित्रकार का प्रशंसक हो गया। बारीक से बारीक चीज़ को भी चित्रकार ने उस चित्र में उतार दिया था। चित्र ऐसा जीवंत था मानो छोटी रानी किसी भी क्षण बोल पड़ेगी। राजा को भी चित्र बहुत पसंद आया। तभी उसकी नज़र चित्रकार द्वारा बनाई गई रानी की जंघा पर गई, जिस पर चित्रकार ने बड़ी सफ़ाई से एक तिल दिखा दिया था। राजा को शंका हुई कि रानी के गुप्त अंग भी चित्रकार ने देखे हैं और क्रोधित होकर उसने चित्रकार से सच्चाई बताने को कहा।

चित्रकार ने पूरी शालीनता से उसे विश्वास दिलाने की कोशिश की कि प्रकृति ने उसे सूक्ष्म दृष्टि दी है जिससे उसे छिपी हुई बात भी पता चल जाती है। तिल उसी का एक प्रमाण है और उसने तिल को खूबसूरती बढाने के लिए दिखाने की कोशिश की है। राजा को उसकी बात का ज़रा भी विश्वास नहीं हुआ। उसने जल्लादों को बुलाकर तत्काल घने जंगल में जाकर उसकी गर्दन उड़ा देने का हुक्म दिया तथा कहा कि उसकी आँखें निकालकर दरबार में उसके सामने पेश करें। महामन्त्री को पता था कि चित्रकार की बातें सच हैं। उसने रास्ते में उन जल्लादों को धन का लोभ देकर चित्रकार को मुक्त करवा लिया तथा उन्हें किसी हिरण को मारकर उसकी आँखे निकाल लेने को कहा ताकि राजा के विश्वास हो जाए कि कलाकार को खत्म कर दिया गया है। चित्रकार को लेकर महामन्त्री अपने भवन ले आया तथा चित्रकार वेश बदलकर उसी के साथ रहने लगा।

कुछ दिनों बाद राजा का पुत्र शिकार खेलने गया, तो एक शेर उसके पीछे पड़ गया। राजकुमार जान बचाने के लिए एक पेड़ पर चढ़ गया। तभी उसकी नज़र पेड़ पर पहले से मौजूद एक भालू पर पड़ी। भालू से जब वह भयभीत हुआ तो भालू ने उससे निश्चिन्त रहने को कहा। भालू ने कहा कि वह भी उसी की तरह शेर से डरकर पेड़ पर चढ़ा हुआ है और शेर के जाने की प्रतीक्षा कर रहा है। शेर भूखा था और उन दोनों पर आँख जमाकर उस पेड़ के नीचे बैठा था। राजकुमार को बैठे-बैठे नींद आने लगी और जगे रहना उसे मुश्किल दिख पड़ा। भालू ने अपनी ओर उसे बुला दिया एक घनी शाखा पर कुछ देर सो लेने को कहा। भालू ने कहा कि जब वह सोकर उठ जाएगा तो वह जागकर रखवाली करेगा और भालू सोएगा जब राजकुमार सो गया तो शेर ने भालू को फुसलाने की कोशिश की। उसने कहा कि वह और भालू वन्य प्राणी हैं, इसलिए दोनों को एक दूसरे का भला सोचना चाहिए। मनुष्य कभी भी वन्य प्राणियों का दोस्त नहीं हो सकता।

उसने भालू से राजकुमार को गिरा देने को कहा जिससे कि वह उसे अपना ग्रास बना सके। मगर भालू ने उसकी बात नहीं मानी तथा कहा कि वह विश्वासघात नहीं कर सकता। शेर मन मसोसकर रह गया। चार घंटों की नींद पूरी करने के बाद जब राजकुमार जागा, तो भालू की बारी आई और वह सो गया। शेर ने अब राजकुमार को फुसलाने की कोशिश की। उसने कहा कि क्यों वह भालू के लिए दुख भोग रहा है। वह अगर भालू को गिरा देता हो तो शेर की भूख मिट जाएगी और वह आराम से राजमहल लौट जाएगा। राजकुमार उसकी बातों में आ गया। उसने धक्का देकर भालू को गिराने की कोशिश की। मगर भालू न जाने कैसे जाग गया और राजकुमार को विश्वासघाती कहकर खूब धिक्कारा। राजकुमार की अन्तरात्मा ने उसे इतना कोसा कि वह गूंगा हो गया।

जब शेर भूख के मारे जंगल में अन्य शिकार की खोज में निकल गया तो वह राजमहल पहुँचा। किसी को भी उसके गूंगा होने की बात समझ में नहीं आई। कई बड़े वैद्य आए, मगर राजकुमार का रोग किसी की समझ में नहीं आया। आखिरकार महामन्त्री के घर छिपा हुआ वह कलाकार वैद्य का रुप धरकर राजकुमार के पास आया। उसने गूंगे राजकुमार के चेहरे का भाव पढ़कर सब कुछ जान लिया। उसने राजकुमार को संकेत की भाषा में पूछ कि क्या आत्मग्लानि से पीड़ित होकर वह अपनी वाणी खो चुका है, तो राजकुमार फूट-फूट कर रो पड़ा।

रोने से उस पर मनोवैज्ञानिक असर पड़ा और उसकी खोई वाणी लौट आई। राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ कि उसने राजकुमार के चेहरे को देखकर सच्चाई कैसे जान ली तो चित्रकार ने जवाब दिया कि जिस तरह कलाकार ने उनकी रानी की जाँघ का तिल देख लिया था। राजा तुरन्त समझ गया कि वह वही कलाकार था जिसके वध की उसने आज्ञा दी थी। वह चित्रकार से अपनी भूल की माफी माँगने लगा तथा ढेर सारे इनाम देकर उसे सम्मानित किया।

उस दक्षिण के विद्वान की कथा से विक्रमादित्य बहुत प्रसन्न हुए तथा उसके पाण्डित्य का सम्मान करते हुए उन्होंने उसे एक लाख स्वर्ण मुद्राएँ दी।

सिंहासन बत्तीसी - सत्रहवीं पुतली (विद्यावती)

विद्यावती नामक सत्रहवीं पुतली ने जो कथा कही वह इस प्रकार है- महाराजा विक्रमादित्य की प्रजा को कोई कमी नहीं थीं। सभी लोग संतुष्ट तथा प्रसन्न रहते थे। कभी कोई समस्या लेकर यदि कोई दरबार आता था उसकी समस्या को तत्काल हल कर दिया जाता था। प्रजा को किसी प्रकार का कष्ट देने वाले अधिकारी को दण्डित किया जाता था। इसलिए कहीं से भी किसी तरह की शिकायत नहीं सुनने को मिलती थी। राजा खुद भी वेश बदलकर समय-समय पर राज्य की स्थिति के बारे में जानने को निकलते थे। ऐसे ही एक रात जब वे वेश बदलकर अपने राज्य का भ्रमण कर रहे थे तो उन्हें एक झोंपड़े से एक बातचीत का अंश सुनाई पड़ा। कोई औरत अपने पति को राजा से साफ़-साफ़ कुछ बताने को कह रही थी और उसका पति उसे कह रहा था कि अपने स्वार्थ के लिए अपने महान राजा के प्राण वह संकट में नहीं डाल सकता है।

विक्रम समझ गए कि उनकी समस्या से उनका कुछ सम्बन्ध है। उनसे रहा नहीं गाया। अपनी प्रजा की हर समस्या को हल करना वे अपना कर्त्तव्य समझते थे। उन्होंने द्वार खटखटाया, तो एक ब्राह्मण दम्पत्ति ने दरवाजा खोला। विक्रम ने अपना परिचय देकर उनसे उनकी समस्या के बारे में पूछा तो वे थर-थर काँपने लगे। जब उन्होंने निर्भय होकर उन्हें सब कुछ स्पष्ट बताने को कहा तो ब्राह्मण ने उन्हें सारी बात बता दी। ब्राह्मण दम्पत्ति विवाह के बारह साल बाद भी निस्संतान थे।

इन बारह सालों में संतान के लिए उन्होंने काफ़ी यत्न किए। व्रत-उपवास, धर्म-कर्म, पूजा-पाठ हर तरह की चेष्टा की पर कोई फायदा नहीं हुआ। ब्राह्मणी ने एक सपना देखा है। स्वप्न में एक देवी ने आकर उसे बताया कि तीस कोस की दूरी पर पूर्व दिशा में एक घना जंगल है जहाँ कुछ साधु सन्यासी शिव की स्तुति कर रहे हैं। शिव को प्रसन्न करने के लिए हवन कुण्ड में अपने अंग काटकर डाल रहे हैं। अगर उन्हीं की तरह राजा विक्रमादित्य उस हवन कुण्ड में अपने अंग काटकर फेंकें, तो शिव प्रसन्न होकर उनसे उनकी इच्छित चीज़ माँगने को कहेंगे। वे शिव से ब्राह्मण दम्पत्ति के लिए संतान की माँग कर सकते हैं और उन्हें सन्तान प्राप्ति हो जाएगी।

विक्रम ने यह सुनकर उन्हें आश्वासन दिया कि वे यह कार्य अवश्य करेंगे। रास्त में उन्होंने बेतालों को स्मरण कर बुलाया तथा उस हवन स्थल तक पहुँचा देने को कहा। उस स्थान पर सचमुच साधु-सन्यासी हवन कर रहे थे तथा अपने अंगों को काटकर अग्नि-कुण्ड में फेंक रहे थे। विक्रम भी एक तरफ बैठ गए और उन्हीं की तरह अपने अंग काटकर अग्नि को अर्पित करने लगे। जब विक्रम सहित वे सारे जलकर राख हो गए तो एक शिवगण वहाँ पहुँचा तथा उसने सारे तपस्विओं को अमृत डालकर ज़िन्दा कर दिया, मगर भूल से विक्रम को छोड़ दिया।

सारे तपस्वी ज़िन्दा हुए तो उन्होंने राख हुए विक्रम को देखा। सभी तपस्विओं ने मिलकर शिव की स्तुति की तथा उनसे विक्रम को जीवित करने की प्रार्थना करने लगे। भगवान शिव ने तपस्विओं की प्रार्थना सुन ली तथा अमृत डालकर विक्रम को जीवित कर दिया । विक्रम ने जीवित होते ही शिव के सामने नतमस्तक होकर ब्राह्मण दम्पत्ति को संतान सुख देने के लिए प्रार्थना की। शिव उनकी परोपकार तथा त्याग की भावना से काफ़ी प्रसन्न हुए तथा उनकी प्रार्थना स्वीकार कर ली। कुछ दिनों बाद सचमुच ब्राह्मण दम्पत्ति को पुत्र लाभ हुआ।

सिंहासन बत्तीसी - सोलहवीं पुतली (सत्यवती)

सोलहवीं पुतली सत्यवती ने जो कथा कही वह इस प्रकार है- राजा विक्रमादित्य के शासन काल में उज्जैन नगरी का यश चारों ओर फैला हुआ था। एक से बढ़कर एक विद्वान उनके दरबार की शोभा बढ़ाते थे और उनकी नौ जानकारों की एक समिति थी जो हर विषय पर राजा को परामर्श देते थे, तथा राजा उनके परामर्श के अनुसार ही राज-काज सम्बन्धी निर्णय लिया करते थे। एक बार ऐश्वर्य पर बहस छिड़ी, तो मृत्युलोक की भी बात चली। राजा को जब पता चला कि पाताल लोक के राजा शेषनाग का ऐश्वर्य देखने लायक है और उनके लोक में हर तरह की सुख-सुविधाएँ मौजूद है। चूँकि वे भगवान विष्णु के खास सेवकों में से एक हैं, इसलिए उनका स्थान देवताओं के समकक्ष है। उनके दर्शन से मनुष्य का जीवन धन्य हो जाता है।

विक्रमादित्य ने सशरीर पाताल लोक जाकर उनसे भेंट करने की ठान ली। उन्होंने दोनों बेतालो का स्मरण किया। जब वे उपस्थित हुए, तो उन्होंने उनसे पाताल लोक ले चलने को कहा। बेताल उन्हें जब पाताल लोक लाए, तो उन्होंने पाताल लोक के बारे में दी गई सारी जानकारी सही पाई। सारा लोक साफ-सुथरा तथा सुनियोजित था। हीरे-जवाहरात से पूरा लोक जगमगा रहा था। जब शेषनाग को ख़बर मिली कि मृत्युलोक से कोई सशरीर आया है तो वे उनसे मिले। राजा विक्रमादित्य ने पूरे आदर तथा नम्रता से उन्हें अपने आने का प्रयोजन बताया तथा अपना परिचय दिया। उनके व्यवहार से शेषनाग इतने प्रसन्न हो गए कि उन्होंने चलते वत उन्हें चार चमत्कारी रत्न उपहार में दिए। पहले रत्न से मुँहमाँगा धन प्राप्त किया जा सकता था।

दूसरा रत्न माँगने पर हर तरह के वस्र तथा आभूषण दे सकता था। तीसरे रत्न से हर तरह के रथ, अश्व तथा पालकी की प्राप्ति हो सकती थी। चौथा रत्न धर्म-कार्य तथा यश की प्राप्ति करना सकता था। काली द्वारा प्रदत्त दोनों बेताल स्मरण करने पर उपस्थित हुए तथा विक्रम को उनके नगर की सीमा पर पहुँचा कर अदृश्य हो गए। चारों रत्न लेकर अपने नगर में प्रविष्ट हुए ही थे कि उनका अभिवादन एक परिचित ब्राह्मण ने किया। उन्होंने राजा से उनकी पाताल लोक की यात्रा तथा रत्न प्राप्त करने की बात जानकर कहा कि राजा की हर उपलब्धि में उनकी प्रजा की सहभागिता है। राजा विक्रमादित्य ने उसका अभिप्राय समझकर उससे अपनी इच्छा से एक रत्न ले लेने को कहा। ब्राह्मण असमंजस में पड़ गया और बोला कि अपने परिवार के हर सदस्य से विमर्श करने के बाद ही कोई फैसला करेगा। जब वह घर पहुँचा और अपनी पत्नी बेटे तथा बेटी से सारी बात बताई, तो तीनों ने तीन अलग तरह के रत्नों में अपनी रुचि जताई। ब्राह्मण फिर भी किसी निष्कर्ष पर नहीं पहुँच सका और इसी मानसिक दशा में राजा के पास पहुँच गया। विक्रम ने हँसकर उसे चारों के चारों रत्न उपहार में दिए।
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March 20, 2014

अद्भुत ( हिन्दी उपन्यास) - चेप्टर 30

पुलिसकी गाडी ट्रफिकमें रास्ता निकालते हूए सायरन बजाते हूए तेजीसे दौड रही थी. और उस गाडीके पिछे और चारपाच गाडीयोंका जथ्था जा रहा था. सायरनके आवाजकी वजहसे ट्रफिक अपनेआप हटकर उन गाडीयोंको रास्ता दे रही थी. उस आवाजके वजहसे और इतनाबडा पुलिसकी गाडीयोंका जथ्था देखकर आसपासके वातावरणमें एक अलगही उत्सुकता और डर फैल गया था. ट्रफिकसे रास्ता निकालते हूए और रास्तेसे तेडे मेडे मोड लेते हूए आखीर वो गाडीयां जॉर्जके घरके आसपास आकर रुक गई. गाडीयोंसे पुलिसकी एक बडी टीम तेजीसे लेकिन एक अनुशाशनके साथ बाहर निकल गई.

'' चलो जल्दी... पुरे एरीयाको घेर लो... क्वीक... कातिल किसीभी हालमें अपने हाथसे निकलना नही चाहिए... ...'' सॅमने अपने टीमको आदेश दिया.

पुलिसका वह समुह एक एक करते हूए बराबर अनुशाशनमे पुरी एरीयामें फैल गया. और उन्होने पुरे एरीयाको चारो तरफसे घेर लिया. इतने बडे पुलिसके समुहके जुतोंके आवाजसे पुरे एरियामें वातावरण तनावपूर्ण हूवा था. आडोस पडोसके लोग कोई खिडकीसे तो कोई पडदेके पिछेसे झांककर बाहर क्या चल रहा है यह कौतुहलयुक्त डरसे देख रहे थे.

दो तिन पुलिसको लेकर सॅम एक घरके पास गया. जिस आदमीने पहले जॉर्जकी कहानी बयान की थी वह संभ्रमकी स्थितीमें वही खडा था.

'' जरा बताईये तो कौन कौनसे घरसे जॉर्जके घरकी सारी हरकते दिखती है और सुनाई देती है...'' सॅमने उस आदमीसे पुछा.

उस आदमीने सॅमको दो-तीन मकानकी तरफ उंगलीसे इशारा करते हूए कहा,

'' वे दो ... और मेरा एक तिसरा..''

'' हमें यह एरीया पुरी तरहसे सील करना पडेगा'' सॅम अपने टीमको उन मकानकी तरफ ले जाते हूए बोला.

सॅमने उन तिन घरोंके अलावा और दो-चार मकान अपने कार्यक्षेत्रमें लिए. एकके बाद एक ऐसे वह हर घरकी तरफ अपने दो-तिन लोगोंको ले जाता और घर अगर बंद हो तो उसे नॉक करता था. कुछ लोग जब दरवाजा खोलकर बाहर आते थे तो उनके चेहरेपर आश्चर्य और डरके भाव दिखाई देते थे. बिच-बिचमें सॅम अपने साथीदारोंको वायरलेसपर दक्ष रहनेके लिए कहता था. ऐसे एक एक घरकी तलाशी लेते हूए वे आखीर एक मकानके पास पहूंच गए. दरवाजा नॉक किया. काफी देरतक रुकनेके बाद अंदरसे कोई प्रतिक्रिया दिख नही रही थी. सॅमके साथमें जो थे वे सब लोग अलर्ट हो गए. अपनी अपनी गन लेकर तैयार हो गए. फिरसे उसने दरवाजा नॉक किया, इसबार जरा जोरसे. फिरभी अंदरसे कोई प्रतिक्रिया नही आई.

लेकिन अब सॅमका सब्र जवाब दे गया,

'' दरवाजा तोडो '' उसने आदेश दिया.

जेफ जो ऐसे कारनामोंमे तरबेज था, हमेशा दरवाजा तोडनेमें आगे रहता था, उसने और और दो चार लोगोंने मिलकर धक्के दे-देकर दरवाजा तोड दिया. दरवाजे टूटनेके बाद खबरदारीके तौरपर पहले सब लोग पिछे हट गए आव्र फिर धीरे धीरे सतर्कताके साथ अंदर जाने लगे.

लगभग सारा घर ढूंढ लिया. लेकिन घरमे कोई होनेके कोई आसार नही दिख रहे थे. किचन, हॉल खाली पडे थे. आखिर उन्होने बेडरुमकी तरफ उनका रुख किया. बेडरुमका दरवाजा पुरी तरह खुला पडा था. उन्होने अंदर झांककर देखा. अंदर कोई नही था, सिर्फ एक टेबल एक कोनेमें पडा हूवा था.

जैसेही सॅम और उसके साथ एक दो पुलिस बेडरुममें गए वे आश्चर्यके सांथ आंखे फाडकर देखतेही रह गए. उनका मुंह खुला की खुला ही रह गया. बेडरुममें एक कोनेमें रखे उस टेबलपर मांसके टूकडे और खुन फैला हूवा था. सब लोग एक दुसरेकी तरफ आश्चर्य और डरसे देखने लगे. सबके दिमागमें एक साथ न जाने कितने सवाल उमड पडे थे. लेकिन किसीकी एकदूसरेकोभी पुछनेकी हिम्मत नही बन पा रही थी. सॅमने बेडरुमके खिडकीकी तरफ देखा. खिडकी पुरी तरह खुली थी.

'' यहा कौन रहता है? ... मालूम करो '' सॅमने आदेश दिया.

उनमेंसे एक पुलिस बाहर गया. और थोडी देर बाद जानकारी इकठ्ठा कर वापस आगया.

'' सर मैने इस मकान मालिकसे अभी अभी संपर्क किया था. ... वह थोडीही देरमें यहा पहूंचेगा... लेकिन लोगोंके जानकारीके हिसाबसे यहां कोई इवेन फोस्टर नामक आदमी किराएसे रहता है ... '' वह पुलिस बोला.

'' वह आए बराबर उसे पहले मुझसे मिलनेके लिए कह दो... फोरेन्सीकके लोगोंको बुलावो... और इस अपार्टमेंटमें जबतक सारे सबुत इकठ्ठा किए नही जाते तबतक और कोईभी ना आ पाए इसका खयाल रखो.....'' सॅमने निर्देश दिये.

थोडी देरमें बाहर जमा हूई लोगोंकी भिडमें मकानमालिक आगया और 'मकान मालिक आया... मकानमालिक आया' ऐसी खुसुर फुसुर शुरु हो गई.

'' कौन है मकानमालिक ?'' सॅमने उस भीडकी तरफ जाते हूए पुछा.

एक अधेड उम्र आदमी सामने आकर डरते हूए दबे हूए स्वरमें बोला, '' मै हूं''

'' तो आपके पास इस आपके किराएदारका अतापता वैगेरा सारी जानकारी होगीही?...'' सॅमने उससे पुछा.

'' हां है ... '' मकानमाकिक एक कागजका टूकडा सॅमको थमाते हूए बोला.

सॅमने वह कागजका टूकडा लिया. उसपर इवेन फोस्टरका ऍड्रेस, फोन जैसी सारी जानकारी मकानमालिकने लिखकर दी थी.

'' लेकिन यह सब देखते हूए यह जानकारी जाली और झुठी होगी ऐसा लगता है... '' मकानमालिक डरते हूए बोला.

'' मतलब? ... आपने उसकी सारी जानकारी जांचकर नही देखी थी? '' सॅमने पुछा.

'' नही .. मतलब... वह मै करनेही वाला था'' मकानमालिक फिरसे डरते हूए बोला.


क्रमश:

अद्भुत ( हिन्दी उपन्यास) - चेप्टर 29

सॅम पुलिस स्टेशनमें बैठकर एक एक बातके उपर गौरसे सोच रहा था और अपने पार्टनर के साथ बिच बिचमें चर्चा कर रहा था.

'' एक बात तुम्हारे खयाल मे आगई क्या ?'' सॅमने शुन्यमें देखते हूए अपने पार्टनरसे पुछा.

'' कौनसी ?'' उसके पार्टनरने पुछा.

'' अबतक तिन कत्ल हूए है ... बराबर?''

'' हां ... तो? ''

'' तिनो कत्लके पहले जॉर्जको यह अच्छी तरहसे पता था की अगला कत्ल किसका होनेवाला है '' सॅमने कहा.

'' हां बराबर''

'' और तिसरे कत्लके वक्त तो जॉर्ज कस्टडीमें बंद था. '' सॅमने कहा.

'' हां बराबर है '' पार्टनरने कहा.

'' इसका मतलब क्या ?'' सॅमने मानो खुदसेही सवाल पुछा हो.

'' इसका मतलब साफ है की उसका काला जादू जेलके अंदरसेभी काम कर रहा है '' पार्टनर मानो उसे एकदम सही जवाब मिला इस खुशीसे बोला.

'' बेवकुफकी तरह कुछभी मत बको ..'' सॅम उसपर गुस्सेसे चिल्लाया.

'' ऐसी बात बोलो की वह किसीभी तर्कसंगत बुध्दी को हजम हो...'' सॅम अपना गुस्सा काबूमें रखनेकी कोशीश करते हूए उसे आगे बोला.

बेचारे सॅमके पार्टनरका खुशीसे दमकता चेहरा मुरझा गया.

काफी समय बिना कुछ बात किये शांतीसे बित गया.

सॅमने आगे कहा, '' सुनो, जब हम जॉर्जके घर गए थे तब एक बात हमने बडी स्पष्टतासे गौर की ....''

''कौनसी ?''

'' की जॉर्जके मकानको इतनी खिडकीयां थी की उसके पडोसमें किसीकोभी उसके घरमें क्या चल रहा है यह स्पष्ट रुपसे दिख और सुनाई दे सकता है .'' सॅमने कहा.

'' हां बराबर...'' उसका पार्टनर कुछ ना समझते हूए बोला.

अचानक एक विचार सॅमके दिमागमें कौंध गया. वह एकदम उठकर खडा हो गया. उसके चेहरेपर गुथ्थी सुलझननेका आनंद झलक रहा था.

उसका पार्टनरभी कुछ ना समझते हूए उसके साथ खडा हो गया.

'' चलो जल्दी... '' सॅम जल्दी जल्दी दरवाजेकी तरफ जाते हूए बोला.

उसका पार्टनर कुछ ना समझते हूए सिर्फ उसके पिछे पिछे जाने लगा.

एकदम ब्रेक लगे जैसा सॅम दरवाजेमें रुक गया.

'' अच्छा तुम एक काम करो ... अपने टीमको स्पेशल मिशनके लिए तैयार रहनेके लिए बोल दो'' सॅमने उसके पार्टनरको आदेश दिया.

उसका पार्टनर पुरी तरह गडबडा गया था. उसके बॉसको अचानक क्या हूवा यह उसके समझ के परे था.

स्पेशल मिशन?...

मतलब कही कातिल मिला तो नही ?...

लेकिन उनकी जो अभी अभी चर्चा हूई थी उसका और कातिल मिलनेका दुर दुरतक कोई वास्ता नही दिख रहा था..

फिर स्पेशल मिशन किसलिए?....

सॅमका पार्टनर सोचने लगा. वह सॅमको कुछ पुछनेही वाला था इतनेमें सॅम दरवाजेके बाहर जाते जाते फिरसे रुक गया और पिछे मुडकर बोला ,

'' चलो जल्दी करो ...''

उसका पार्टनर तुरंत हरकतमें आगया.

जानेदो मुझे क्या करना है? ...

स्पेशल मिशन तो स्पेशल मिशन..

सॅमके पार्टनरने पहले टेबलसे फोन उठाया और एक नंबर डायल करने लगा.


क्रमश:...

अद्भुत ( हिन्दी उपन्यास) - चेप्टर 28

जैसेही इरिकका फोन आया, तैयारी करके डिटेक्टीव सॅम तुरंत रोनॉल्डके घरकी तरफ रवाना हूवा.

इतना फुलप्रुफ इंतजाम होनेके बादभी रोनॉल्डका कत्ल होता है ... इसका मतलब क्या ?...

पहलेही पुलिसकी इमेज लोगोंमे काफी खराब हो चूकी थी...

और इसबार पुरा विश्वास था की कातिल अब इस कॅमेरेके जालसे छूटना नामुमकीन है ...

फिर कहा गडबड हूई ?...

गाडी स्पिडसे चलाते हूए सॅमके विचारभी तेजीसे दौड रहे थे.

डिटेक्टीव सॅमने बेडरुममें प्रवेश किया. बेडरुममें रोनॉल्डकी डेड बॉडी अव्यवस्थीत हालमें बेडपर पडी हूई थी. सब तरफ खुन ही खुन फैला हूवा दिख रहा था. सॅमने बॉडीकी प्राथमीक जांच की और फिर कमरेंकी जांच की. इरिक और रिचर्ड वही थे. पुलिसकी इन्व्हेस्टीगेशन टीम जो वहां अभी अभी पहूंच गई थी, अपने काममें व्यस्त थी.

'' मिल रहा है कुछ ?'' सॅमने उन्हे पुछा.

'' नही सर .. अबतकतो कुछ नही. '' सॅमका पार्टनर उनकी तरफ से बोला.

सॅमने बेडरुममें आरामसे चलते हूए और सबकुछ ध्यानपूर्वक निहारते हूए एक चक्कर मारा. चक्कर मारनेके बाद सॅम फिरसे बेडके पास आकर खडा हो गया और उसने बेडके निचे झुककर देखा.

बेडके निचेसे दो चमकती हूई आंखे उसकी तरफ घुरकर देख रही थी. एक पलके लिए क्यों ना हो सॅम डरकर थोडा पिछे हट गया. वे चमकती हूई आंखे फिर धीरे धीर उसकी दिशामें आने लगी. और अचानक हमला कीये जैसे उसपर झपट पडी. वह छटसे वहांसे हट गया. उसे एक गलेमें पट्टा पहनी हूई काली बिल्ली कॉटके निचेसे बाहर आकर दरवाजेसे बेडरुकके बाहर दौडकर जाते हूए दिखाई दी. दरवाजेसे बाहर जातेही वह बिल्ली एकदम रुक गई और उसने मुडकर पिछे देखा. कमरेमे एक अजीबसा सन्नाटा छा गया था. उस बिल्लीने एक दो पल सॅमकी तरफ देखा और फिरसे मुडकर वह वहांसे भाग गई. दोन तिन पल कुछभी ना बोलते हूए गुजर गए.

'' यही वह बिल्ली... सर'' रिचर्डने कमरेमें फैले सन्नाटेको भंग किया.

'' ट्रान्समिशन बॉक्स किधर है ?'' बिल्लीसे सॅमको याद आगया.

'' सर यहां '' इरीकने एक जगह कोनेमें इशारा करते हूए कहा.

वह बॉक्स निचे जमिनपर गीरा हूवा था. सॅम नजदिक गया और उसने वह बॉक्स उठाया. वह टूटा हूवा था. सॅमने वह बॉक्स उलट पुलटकर गौरसे देखा और वापस जहांसे उठाया था वही रख दिया. तभी बेडरुमके दरवाजेकी तरफ सॅमका यूंही खयाल गया. हमेशाकी तरह दरवाजा तोडा हूवा था. लेकिन इसबार अंदरके कुंडीको चेन लगाकर ताला लगाया हूवा था.

''जेफ .. जरा इधर तो आवो '' सॅमने जेफको बुलाया.

जेफ तत्परतासे सॅमके पास चला गया.

'' यह इधर देखो ... और अब बोलो तुम्हारी थेअरी क्या कहती है ... कत्ल करनेके बाद दरवाजा बंद कर अंदरसे चेन लगाकर ताला कैसे लगाया होगा?'' सॅमने उस कुंडीको लगाए चेन और तालेके ओर उसका ध्यान खिंचते हूए कहा.

जेफने उस चेन और ताला लगाए कुंडीकी तरफ ध्यानसे देखते हूए कहा, '' सर.. अब तो मुझे पक्का विश्वास होने लगा है ... ''

'' किस बातका ?''

'' की कातील कोई आदमी ना होकर कोई रुहानी ताकत हो सकती है '' जेफ पागलोंकी तरह कही शून्यमें देखते हूए बोला.

सबलोग गुढ भावसे एक दूसरेकी तरफ देखने लगे.


क्रमश:...

अद्भुत ( हिन्दी उपन्यास) - चेप्टर 27

रोनॉल्डका घर और आसपासका इलाका पुरी तरह रातके अंधेरेमें डूब गया था. बाहर आसपास झिंगुरोंका किर्र... ऐसा आवाज और दूर कही कुतोंकी रोने जैसी आवाज आ रही थी. अचानक घरके पास एक पेढपर आसरेके लिए बैठे पंछी डरके मारे फडफडाकर उडने लगे.

दो पुलिस मेंबर्स रिचर्ड और इरीक टीव्हीके सामने बैठकर रोनॉल्डके घरमें चलरही सारी हरकतोंका निरिक्षण कर रहे थे. रोनॉल्डके घरके बगलमेंही एक गेस्टरुममें उन्हे जगह दी गई थी. रिचर्ड शरीरसे जाडा और कदसे मध्यम था तो उसके विपरीत इरिक उंचा और एकदम पतला था. उनके सामने टिव्हीपर बेचैनीसे करवट बदलता और सोनेकी चेष्टा कर रहा रोनॉल्ड दिख रहा था.

'' इससे अच्छा किसी सेक्सी दांपत्यकी टिव्हीपर निगरानी करना मैने कभीभी पसंद किया होता. ..'' इरीकने मजाकमें कहा.

रिचर्डको इरीकके मजाकमे बिलकुल दिलचस्पी नही दिख रही थी.

'' नही मतलब तु मोटा है फिरभी तुम्हारे जैसे किसी मोटे शादी हूए किसी दंपतीके बेडरुमकी निगरानी करनाभी मुझे अच्छा लगता.'' इरीकने आगे कहा.

फिरभी रिचर्डने भावहीन चेहरेसे जो चूप्पी साध रखी थी वह तोडनेके लिए वह तैयार नही था. .

तभी अचानक एक मॉनीटरपर कुछ हरकत दिखाई दी. एक काली बिल्ली बेडरुममें दौडते हूए इधरसे उधर गई थी.

'' ए देख वहा रोनॉल्डके बेडरुममें एक काली बिल्ली है '' रिचर्डने कहा.

'' यहा क्या हम कुत्ते बिल्लीयोंके हरकतोंपर नजर रखनेके लिए बैठे है? .. मेरे बापको अगर पता होता की एक दिन मै ऐसे मॉनिटरपर कुत्ते बिल्लीयोंकी हरकतोपर नजर रखे बैठनेवाला हूं.. तो वह मुझे कभी पुलीसमें नही जाने देता..'' इरीकने ताना मारते हूए कहा.

अचानक उस बिल्लीने कोनेमें रखे एक चौरस डीब्बेपर छलांग लगाई... और इधर रिचर्ड और इरिकके सामने रखे हूए सारे मॉनिटर्स ब्लॅंक हो गए.

'' ए क्या हूवा ?'' इरीक कुर्सीसे उठकर खडा होते हूए बोला.

रिचर्डभी उसके कुर्सीसे उठकर खडा हो गया था.

इरिकका मजाकिया अंदाज कबका खत्म हो चूका था. उसके चेहरेपर अब चिंता, और हडबडाहट दिख रही थी.

'' चल जल्दी .. क्या गडबडी हूई यह देखके आते है '' रिचर्ड जल्दी जल्दी कमरेसें बाहर निकलते हूए बोला.

इरीकभी उसके पिछे पिछे जाने लगा.


एक बेडरुम. बेडरुममे धुंधली रोशनी फैली हूई थी और बेडपर कोई साया सोया हूवा दिखाई दे रहा था. अचानक बेडके बगलमें रखा टेलिफोन लगातार बजने लगा. उस बेडपर सोए सायेने निंदमेही अपना हाथ बढाकर वह टेलिफोन उठाया.

'' यस...'' वह साया कोई और नही डिटेक्टीव्ह सॅम था.

उधरसे इरीकका आवाज आया, '' सर रोनॉल्डकाभी उसी तरहसे कत्ल हो चूका है ''

'' क्या ?'' सॅम एकदमसे बेडसे उठकर बैठ गया.

उसने बेडके बगलमें एक बटन दबाकर बेडरुमका बल्ब जलाया. उसकी निंद पुरी तरहसे उड चूकी थी.

'' क्या कहा?'' सॅमको वह जो सुन रहा था उसपर विश्वास नही हो रहा था.

'' सर रोनॉल्डकाभी कत्ल हो चूका है '' उधरसे इरिकने कहा.

'' इतने कॅमेरे लगाकर मॉनिटर लगाकर तुमलोग लगातार निगरानी कर रहे थे.... तब भी? .... तुम लोग वहां निगरानी कर रहे थे या झक मार रहे थे ?'' चिढकर सॅमने कहा .

'' सर वह क्या हूवा ... एक बिल्लीने ट्रान्समिटरके उपर छलांग लगाई और सारे मॉनिटरपर एकदमसे बंद हो गए. .. तोभी हम रिपेअर करनेके लिए वहां गए थे... और वहां जाकर देखा तो तबतक कत्ल हो चूका था...'' इरिक अपनी तरफसे सफाई देनेका प्रयास कर रहा था.


क्रमश:...

अद्भुत ( हिन्दी उपन्यास) - चेप्टर 26

जॉर्जके मकानके खिडकीसे अंदरका सबकुछ दिख रहा था. आजभी वह फायरप्लेसके सामने बैठा हूवा था. उसने अपने हाथसे वह गुड्डा बगलमें जमीनपर रख दिया और झुककर आगके सामने फर्शपर अपना मस्तक रगडने लगा. यह सब करते हूए उसका कुछ बुदबुदाना जारीही था. थोडी देरसे वह खडा होगया और अजीब ढंगसे जोरसे किसी पागल की तरह चिखा. इतना अचानक और जोरसे चिखा की बाहर खिडकीसे झांक रहे डिटेक्टीव सॅम, सॅमका पार्टनर और उनको साथमें जो लेकर आया था वह आदमी, सबलोग चौंककर सहमसे गए. उस चिखके बाद वातावरणमें एक अजीब भयानक सन्नाटा छा गया.

'' मिस्टर रोनॉल्ड पार्कर अब तुम्हारी बारी है .. '' जॉर्ज वह निचे रखा हूवा गुड्डा अपने हाथमें लेते हूए बोला.

लेकिन इतनेमें दरवाजेकी बेल बजी. जॉर्जने पलटकर दरवाजेकी तरफ देखा. गुड्डेको फिरसे निचे जमिनपर रख दिया और उठकर दरवाजा खोलनेके लिए सामने आ गया.

दरवाजा खोला. सामने डिटेक्टीव सॅम और उसका पार्टनर था. वह तिसरा आदमी शायद वहांसे पहलेही खिसक गया था.

'' मिस्टर जॉर्ज कोलीन्स हम आपको स्टीव्हन स्मीथ और पॉल रोबर्टसके कत्लका एक सस्पेक्टके तौरपर गिरफ्तार करने आये है... आपको चूप रहनेका पुरी तरह हक है ... और कुछ बोलनेके पहले आप अपने वकिलके साथ संपर्क कर सकते है ... और खयाल रहे की आप जोभी बोलोगे वह कोर्टमें आपके खिलाफ इस्तेमाल किया जाएगा... '' डिटेक्टीव सॅमने दरवाजा खोलेबराबर ऐलान कर दिया.

जॉर्ज कोलीन्सका चेहरा एकदम भावशून्य था. वह बडे इम्तीनानके साथ उनके सामने आ गया.

उसे अरेस्ट करनेके पहले सॅमने कुछ सवालात पुछनेकी ठान ली.

'' यहा आपके साथ कौन-कौन रहता है?'' सॅमने पहला सवाल पुछा.

'' मै अकेलाही रहता हू '' उसने जवाब दिया.

'' लेकिन हमारे जानकारीके अनुसार आपके साथ आपके पिताजीभी रहते थे. ''

'' हां रहते थे ...लेकिन.... अब वे इस दुनियामें नही रहे ''

'' ओह ... सॉरी... यह कब हूवा? ... मतलब वे कब गुजर गए ?''

'' नॅन्सीके मौत की खबर सुननेके बाद कुछ दिनमेंही वे चल बसे ''

'' अच्छा आप स्टिव्हन और पॉलको पहचानते थे क्या ?''

'' हां उन हैवानोंको मै अच्छी तरहसे पहचानता हूं ''

स्टिव्हन और पॉलका नाम लेनेके बाद सॅमने एक बात गौर की की उनके उपरका गुस्सा और द्वेश उसके चेहरेपर साफ झलक रहा था. या फिर उसने वह छिपानेकी कोशीशभी नही की थी.

अब सॅमने सिधे असली मुद्देपर उससे बात करनेकी ठान ली.

'' आपने स्टिव्हन और पॉलका खुन किया क्या ?''

'' हां '' उसने ठंडे स्वरमें कहा.

सॅमको लगा था की वह आनाकानी करेगा. लेकिन उसने कुछभी आनाकानी ना करते हूए सिधे बात कबूल कर ली. .

'' कैसे किया आपने उनका कत्ल ?'' सॅमने अगला सवाल पुछा.

'' मेरे पासके काले जादूसे मैने उन्हे मार दिया '' उसने कहा.

जॉर्ज पागल की तरह दिखता तो थाही लेकिन उसके इस जवाबसे सॅमको अब विश्वास हो चला था.

'' आपके इस काले जादूसे आप किसीकोभी मारकर बता सकते हो?'' सॅमने व्यंगात्मक ढंगसे पूछा.

'' किसीकोभी मै क्यों मारुंगा?... जिसकी मुझसे दुष्मनी है उसकोही मै मारुंगा ''

'' अब आगे आप इस काले जादूसे किसको मारने वाले हो ?''

'' अब रोनॉल्डका नंबर है ''

'' अब अभी इसी वक्त आप उसे मारकर बता सकते हो ?'' सॅमने उसका काला जादू और वह दोनोंकाभी झूट साबीत करनेके उद्देशसे पुछा.

'' अब नही ... उसका वक्त जब आएगा तब उसे जरुर मारुंगा '' उसने कहा.

उसका यह जवाब सुनकर सॅमको अब फिलहाल उसे और सवाल पुछनेमें कोई दिलचस्पी नही रही थी. वे दोनो जॉर्जको हथकडी पहनानेके लिए सामने आ गए. इस बारभी उसने कोई प्रतिकार ना करते हूए पुरा सहयोग किया.

सॅमको लग रहा था की या तो यह आदमी पागल होगा या अति चालाक...

लेकिन वह जो कहता है वह अगर सच हो तो ?...

पल भरके लिए क्यों ना हो सॅमके दिमागमें यह विचार कौंध गया ..

नही ... ऐसे कैसे हो सकता है ?...

सॅमने अपने दिमागमें आया विचार झटक दिया.


डिटेक्टीव सॅमके पार्टनरने जॉर्जको जेलके एक कोठरीमें बंद किया और बाहरसे ताला लगाया. सॅम बाहरही खडा था. जैसेही सॅम और उसका पार्टनर वहांसे जानेके लिए मुडे, जॉर्ज आवेशमें आकर चिल्लाया -

'' तुम लोग मुरख हो... भलेही तुमने मुझे जेलके इस कोठरीमें बंद किया फिरभी मेरा जादू यहांसेभी काम करेगा...''

सॅम और उसका पार्टनर रुक गए और मुडकर जॉर्जकी तरफ देखने लगे.

सॅमको जॉर्जकी अब दया आ रही थी.

बेचारा ...

बहनका इस तरहसे दुर्दैवी अंत होनेसे उसका इस तरह झुंझलाना जायज है ...

सॅम सोचते हूए फिरसे अपने साथीके साथ आगे चलने लगा. थोडी दूरी तय करनेके बाद फिरसे मुडकर उसने जॉर्जकी तरफ देखा. वह अब निचे झुककर फर्शपर माथा रगड रहा था और साथमें कुछ मंत्र बुदबुदा रहा था.

'' इसके उपर ध्यान रखो और इसे किसीभी व्हिजीटरको मिलनेकी अनुमती मत दो. '' सॅमने निर्देश दिया.

'' यस सर'' सॅमका पार्टनर आज्ञाकारी ढंगसे बोला.


क्रमश:...

March 18, 2014

बेताल पच्चीसी (पच्चीसवीं और अंतिम कहानी)

योगी राजा को और मुर्दे को देखकर बहुत प्रसन्न हुआ। बोला, "हे राजन्! तुमने यह कठिन काम करके मेरे साथ बड़ा उपकार किया है। तुम सचमुच सारे राजाओं में श्रेष्ठ हो।"

इतना कहकर उसने मुर्दे को उसके कंधे से उतार लिया और उसे स्नान कराकर फूलों की मालाओं से सजाकर रख दिया। फिर मंत्र-बल से बेताल का आवाहन करके उसकी पूजा की। पूजा के बाद उसने राजा से कहा, "हे राजन्! तुम शीश झुकाकर इसे प्रणाम करो।"

राजा को बेताल की बात याद आ गयी। उसने कहा, "मैं राजा हूँ, मैंने कभी किसी को सिर नहीं झुकाया। आप पहले सिर झुकाकर बता दीजिए।"

योगी ने जैसे ही सिर झुकाया, राजा ने तलवार से उसका सिर काट दिया। बेताल बड़ा खुश हुआ। बोला, "राजन्, यह योगी विद्याधरों का स्वामी बनना चाहता था। अब तुम बनोगे। मैंने तुम्हें बहुत हैरान किया है। तुम जो चाहो सो माँग लो।"

राजा ने कहा, "अगर आप मुझसे खुश हैं तो मेरी प्रार्थना है कि आपने जो चौबीस कहानियाँ सुनायीं, वे, और पच्चीसवीं यह, सारे संसार में प्रसिद्ध हो जायें और लोग इन्हें आदर से पढ़े।"

बेताल ने कहा, "ऐसा ही होगा। ये कथाएँ ‘बेताल-पच्चीसी’ के नाम से मशहूर होंगी और जो इन्हें पढ़ेंगे, उनके पाप दूर हो जायेंगे।"

यह कहकर बेताल चला गया। उसके जाने के बाद शिवाजी ने प्रकट होकर कहा, "राजन्, तुमने अच्छा किया, जो इस दुष्ट साधु को मार डाला। अब तुम जल्दी ही सातों द्वीपों और पाताल-सहित सारी पृथ्वी पर राज्य स्थापित करोगे।"

इसके बाद शिवाजी अन्तर्धान हो गये। काम पूरे करके राजा श्मशान से नगर में आ गया। कुछ ही दिनों में वह सारी पृथ्वी का राजा बन गया और बहुत समय तक आनन्द से राज्य करते हुए अन्त में भगवान में समा गया।

Baital Pachisi - बेताल पच्चीसी (चौबीसवीं कहानी)

किसी नगर में मांडलिक नाम का राजा राज करता था। उसकी पत्नी का नाम चडवती था। वह मालव देश के राजा की लड़की थी। उसके लावण्यवती नाम की एक कन्या थी। जब वह विवाह के योग्य हुई तो राजा के भाई-बन्धुओं ने उसका राज्य छीन लिया और उसे देश-निकाला दे दिया। राजा रानी और कन्या को साथ लेकर मालव देश को चल दिया। रात को वे एक वन में ठहरे। पहले दिन चलकर भीलों की नगरी में पहुँचे। राजा ने रानी और बेटी से कहा कि तुम लोग वन में छिप जाओ, नहीं तो भील तुम्हें परेशान करेंगे। वे दोनों वन में चली गयीं। इसके बाद भीलों ने राजा पर हमला किया। राजा ने मुकाबला किया, पर अन्त में वह मारा गया। भील चले गये।

उसके जाने पर रानी और बेटी जंगल से निकलकर आयीं और राजा को मरा देखकर बड़ी दु:खी हुईं। वे दोनों शोक करती हुईं एक तालाब के किनारे पहुँची। उसी समय वहाँ चंडसिंह नाम का साहूकार अपने लड़के के साथ, घोड़े पर चढ़कर, शिकार खेलने के लिए उधर आया। दो स्त्रियों के पैरों के निशान देखकर साहूकार अपने बेटे से बोला, "अगर ये स्त्रियाँ मिल जों तो जायें जिससे चाहो, विवाह कर लेना।"

लड़के ने कहा, "छोटे पैर वाली छोटी उम्र की होगी, उससे मैं विवाह कर लूँगा। आप बड़ी से कर लें।"

साहूकार विवाह नहीं करना चाहता था, पर बेटे के बहुत कहने पर राजी हो गया।

थोड़ा आगे बढ़ते ही उन्हें दोनों स्त्रियां दिखाई दीं। साहूकार ने पूछा, "तुम कौन हो?"

रानी ने सारा हाल कह सुनाया। साहूकार उन्हें अपने घर ले गया। संयोग से रानी के पैर छोटे थे, पुत्री के पैर बड़े। इसलिए साहूकार ने पुत्री से विवाह किया, लड़के ने रानी से हुई और इस तरह पुत्री सास बनी और माँ बेटे की बहू। उन दोनों के आगे चलकर कई सन्तानें हुईं।

इतना कहकर बेताल बोला, "राजन्! बताइए, माँ-बेटी के जो बच्चे हुए, उनका आपस में क्या रिश्ता हुआ?"

यह सवाल सुनकर राजा बड़े चक्कर में पड़ा। उसने बहुत सोचा, पर जवाब न सूझ पड़ा। इसलिए वह चुपचाप चलता रहा।

बेताल यह देखकर बोला, "राजन्, कोई बात नहीं है। मैं तुम्हारे धीरज और पराक्रम से खुश हूँ। मैं अब इस मुर्दे से निकला जाता हूँ। तुम इसे योगी के पास ले जाओ। जब वह तुम्हें इस मुर्दे को सिर झुकाकर प्रणाम करने को कहे तो तुम कह देना कि पहले आप करके दिखाओ। जब वह सिर झुकाकर बतावे तो तुम उसका सिर काट लेना। उसका बलिदान करके तुम सारी पृथ्वी के राजा बन जाओगे। सिर नहीं काटा तो वह तुम्हारी बलि देकर सिद्धि प्राप्त करेगा।"

इतना कहकर बेताल चला गया और राजा मुर्दे को लेकर योगी के पास आया।

Baital Pachisi - बेताल पच्चीसी (तेईसवीं कहानी)

कलिंग देश में शोभावती नाम का एक नगर है। उसमें राजा प्रद्युम्न राज करता था। उसी नगरी में एक ब्राह्मण रहता था, जिसके देवसोम नाम का बड़ा ही योग्य पुत्र था। जब देवसोम सोलह बरस का हुआ और सारी विद्याएँ सीख चुका तो एक दिन दुर्भाग्य से वह मर गया। बूढ़े माँ-बाप बड़े दु:खी हुए। चारों ओर शोक छा गया। जब लोग उसे लेकर श्मशान में पहुँचे तो रोने-पीटने की आवाज़ सुनकर एक योगी अपनी कुटिया में से निकलकर आया। पहले तो वह खूब ज़ोर से रोया, फिर खूब हँसा, फिर योग-बल से अपना शरीर छोड़ कर उस लड़के के शरीर में घुस गया। लड़का उठ खड़ा हुआ। उसे जीता देखकर सब बड़े खुश हुए।

वह लड़का वही तपस्या करने लगा।

इतना कहकर बेताल बोला, "राजन्, यह बताओ कि यह योगी पहले क्यों तो रोया, फिर क्यों हँसा?"

राजा ने कहा, "इसमें क्या बात है! वह रोया इसलिए कि जिस शरीर को उसके माँ-बाप ने पाला-पोसा और जिससे उसने बहुत-सी शिक्षाएँ प्राप्त कीं, उसे छोड़ रहा था। हँसा इसलिए कि वह नये शरीर में प्रवेश करके और अधिक सिद्धियाँ प्राप्त कर सकेगा।"

राजा का यह जवाब सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा जाकर उसे लाया तो रास्ते में बेताल ने कहा, "हे राजन्, मुझे इस बात की बड़ी खुशी है कि बिना जरा-सा भी हैरान हुए तुम मेरे सवालों का जवाब देते रहे हो और बार-बार आने-जाने की परेशानी उठाते रहे हो। आज मैं तुमसे एक बहुत भारी सवाल करूँगा। सोचकर उत्तर देना।"

इसके बाद बेताल ने यह कहानी सुनायी।

Baital Pachisi - बेताल पच्चीसी (बाईसवीं कहानी)

कुसुमपुर नगर में एक राजा राज्य करता था। उसके नगर में एक ब्राह्मण था, जिसके चार बेटे थे। लड़कों के सयाने होने पर ब्राह्मण मर गया और ब्राह्मणी उसके साथ सती हो गयी। उनके रिश्तेदारों ने उनका धन छीन लिया। वे चारों भाई नाना के यहाँ चले गये। लेकिन कुछ दिन बाद वहाँ भी उनके साथ बुरा व्यवहार होने लगा। तब सबने मिलकर सोचा कि कोई विद्या सीखनी चाहिए। यह सोच करके चारों चार दिशाओं में चल दिये।

कुछ समय बाद वे विद्या सीखकर मिले। एक ने कहा, "मैंने ऐसी विद्या सीखी है कि मैं मरे हुए प्राणी की हड्डियों पर मांस चढ़ा सकता हूँ।" दूसरे ने कहा, "मैं उसके खाल और बाल पैदा कर सकता हूँ।" तीसरे ने कहा, "मैं उसके सारे अंग बना सकता हूँ।" चौथा बोला, "मैं उसमें जान डाल सकता हूँ।"

फिर वे अपनी विद्या की परीक्षा लेने जंगल में गये। वहाँ उन्हें एक मरे शेर की हड्डियाँ मिलीं। उन्होंने उसे बिना पहचाने ही उठा लिया। एक ने माँस डाला, दूसरे ने खाल और बाल पैदा किये, तीसरे ने सारे अंग बनाये और चौथे ने उसमें प्राण डाल दिये। शेर जीवित हो उठा और सबको खा गया।

यह कथा सुनाकर बेताल बोला, "हे राजा, बताओ कि उन चारों में शेर बनाने का अपराध किसने किया?"

राजा ने कहा, "जिसने प्राण डाले उसने, क्योंकि बाकी तीन को यह पता ही नहीं था कि वे शेर बना रहे हैं। इसलिए उनका कोई दोष नहीं है।"

यह सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका। राजा जाकर फिर उसे लाया। रास्ते में बेताल ने एक नयी कहानी सुनायी।

Baital Pachisi - बेताल पच्चीसी (इक्कीसवीं कहानी)

विशाला नाम की नगरी में पदमनाभ नाम का राजा राज करता था। उसी नगर में अर्थदत्त नाम का एक साहूकार रहता था। अर्थदत्त के अनंगमंजरी नाम की एक सुन्दर कन्या थी। उसका विवाह साहूकार ने एक धनी साहूकार के पुत्र मणिवर्मा के साथ कर दिया। मणिवर्मा पत्नी को बहुत चाहता था, पर पत्नी उसे प्यार नहीं करती थी। एक बार मणिवर्मा कहीं गया। पीछे अनंगमंजरी की राजपुरोहित के लड़के कमलाकर पर निगाह पड़ी तो वह उसे चाहने लगी। पुरोहित का लड़का भी लड़की को चाहने लगा। अनंगमंजरी ने महल के बाग़ मे जाकर चंडीदेवी को प्रणाम कर कहा, "यदि मुझे इस जन्म में कमलाकर पति के रूप में न मिले तो अगले जन्म में मिले।"

यह कहकर वह अशोक के पेड़ से दुपट्टे की फाँसी बनाकर मरने को तैयार हो गयी। तभी उसकी सखी आ गयी और उसे यह वचन देकर ले गयी कि कमलाकर से मिला देगी। दासी सबेरे कमलाकर के यहाँ गयी और दोनों के बगीचे में मिलने का प्रबन्ध कर आयी। कमलाकर आया और उसने अनंगमंजरी को देखा। वह बेताब होकर मिलने के लिए दौड़ा। मारे खुशी के अनंगमंजरी के हृदय की गति रुक गयी और वह मर गयी। उसे मरा देखकर कमलाकर का भी दिल फट गया और वह भी मर गया। उसी समय मणिवर्मा आ गया और अपनी स्त्री को पराये आदमी के साथ मरा देखकर बड़ा दु:खी हुआ। वह स्त्री को इतना चाहता था कि उसका वियोग न सहने से उसके भी प्राण निकल गये। चारों ओर हाहाकार मच गया। चंडीदेवी प्रकट हुई और उसने सबको जीवित कर दिया।

इतना कहकर बेताल बोला, "राजन्, यह बताओ कि इन तीनों में सबसे ज्यादा विराग में अंधा कौन था?"

राजा ने कहा, "मेरे विचार में मणिवर्मा था, क्योकि वह अपनी पत्नी को पराये आदमी को प्यार करते देखकर भी शोक से मर गया। अनंगमंजरी और कमलाकर तो अचानक मिलने की खुशी से मरे। उसमें अचरज की कोई बात नहीं थी।"

राजा का यह जवाब सुनकरव बेताल फिर पेड़ पर जा लटका और राजा को वापस जाकर उसे लाना पड़ा। रास्ते में बेताल ने फिर एक कहानी कही।

Baital Pachisi - बेताल पच्चीसी (बीसवीं कहानी)

चित्रकूट नगर में एक राजा रहता था। एक दिन वह शिकार खेलने जंगल में गया। घूमते-घूमते वह रास्ता भूल गया और अकेला रह गया। थक कर वह एक पेड़ की छाया में लेटा कि उसे एक ऋषि-कन्या दिखाई दी। उसे देखकर राजा उस पर मोहित हो गया। थोड़ी देर में ऋषि स्वयं आ गये। ऋषि ने पूछा, "तुम यहाँ कैसे आये हो?" राजा ने कहा, "मैं शिकार खेलने आया हूँ। ऋषि बोले, "बेटा, तुम क्यों जीवों को मारकर पाप कमाते हो?"

राजा ने वादा किया कि मैं अब कभी शिकार नहीं खेलूँगा। खुश होकर ऋषि ने कहा, "तुम्हें जो माँगना हो, माँग लो।"

राजा ने ऋषि-कन्या माँगी और ऋषि ने खुश होकर दोनों का विवाह कर दिया। राजा जब उसे लेकर चला तो रास्ते में एक भयंकर राक्षस मिला। बोला, "मैं तुम्हारी रानी को खाऊँगा। अगर चाहते हो कि वह बच जाय तो सात दिन के भीतर एक ऐसे ब्राह्मण-पुत्र का बलिदान करो, जो अपनी इच्छा से अपने को दे और उसके माता-पिता उसे मारते समय उसके हाथ-पैर पकड़ें।" डर के मारे राजा ने उसकी बात मान ली। वह अपने नगर को लौटा और अपने दीवान को सब हाल कह सुनाया। दीवान ने कहा, "आप परेशान न हों, मैं उपाय करता हूँ।"

इसके बाद दीवान ने सात बरस के बालक की सोने की मूर्ति बनवायी और उसे कीमती गहने पहनाकर नगर-नगर और गाँव-गाँव घुमवाया। यह कहलवा दिया कि जो कोई सात बरस का ब्राह्मण का बालक अपने को बलिदान के लिए देगा और बलिदान के समय उसके माँ-बाप उसके हाथ-पैर पकड़ेंगे, उसी को यह मूर्ति और सौ गाँव मिलेंगे।

यह ख़बर सुनकर एक ब्राह्मण-बालक राजी हो गया, उसने माँ-बाप से कहा, "आपको बहुत-से पुत्र मिल जायेंगे। मेरे शरीर से राजा की भलाई होगी और आपकी गरीबी मिट जायेगी।"

माँ-बाप ने मना किया, पर बालक ने हठ करके उन्हें राजी कर लिया।

माँ-बाप बालक को लेकर राजा के पास गये। राजा उन्हें लेकर राक्षस के पास गया। राक्षस के सामने माँ-बाप ने बालक के हाथ-पैर पकड़े और राजा उसे तलवार से मारने को हुआ। उसी समय बालक बड़े ज़ोर से हँस पड़ा।

इतना कहकर बेताल बोला, "हे राजन्, यह बताओ कि वह बालक क्यों हँसा?"

राजा ने फौरन उत्तर दिया, "इसलिए कि डर के समय हर आदमी रक्षा के लिए अपने माँ-बाप को पुकारता है। माता-पिता न हों तो पीड़ितों की मदद राजा करता है। राजा न कर सके तो आदमी देवता को याद करता है। पर यहाँ तो कोई भी बालक के साथ न था। माँ-बाप हाथ पकड़े हुए थे, राजा तलवार लिये खड़ा था और राक्षस भक्षक हो रहा था। ब्राह्मण का लड़का परोपकार के लिए अपना शरीर दे रहा था। इसी हर्ष से और अचरज से वह हँसा।"

इतना सुनकर बेताल अन्तर्धान हो गया और राजा लौटकर फिर उसे ले आया। रास्ते में बेताल ने फिर कहानी शुरू कर दी।

Baital Pachisi - बेताल पच्चीसी (उन्नीसवीं कहानी)

वक्रोलक नामक नगर में सूर्यप्रभ नाम का राजा राज करता था। उसके कोई सन्तान न थी। उसी समय में एक दूसरी नगरी में धनपाल नाम का एक साहूकार रहता था। उसकी स्त्री का नाम हिरण्यवती था और उसके धनवती नाम की एक पुत्री थी। जब धनवती बड़ी हुई तो धनपाल मर गया और उसके नाते-रिश्तेदारों ने उसका धन ले लिया। हिरण्यवती अपनी लड़की को लेकर रात के समय नगर छोड़कर चल दी। रास्ते में उसे एक चोर सूली पर लटकता हुआ मिला। वह मरा नहीं था। उसने हिरण्यवती को देखकर अपना परिचय दिया और कहा, "मैं तुम्हें एक हज़ार अशर्फियाँ दूँगा। तुम अपनी लड़की का ब्याह मेरे साथ कर दो।"

हिरण्यवती ने कहा, "तुम तो मरने वाले हो।"

चोर बोला, "मेरे कोई पुत्र नहीं है और निपूते की परलोक में सदगति नहीं होती। अगर मेरी आज्ञा से और किसी से भी इसके पुत्र पैदा हो जायेगा तो मुझे सदगति मिल जायेगी।"

हिरण्यवती ने लोभ के वश होकर उसकी बात मान ली और धनवती का ब्याह उसके साथ कर दिया। चोर बोला, "इस बड़ के पेड़ के नीचे अशर्फियाँ गड़ी हैं, सो ले लेना और मेरे प्राण निकलने पर मेरा क्रिया-कर्म करके तुम अपनी बेटी के साथ अपने नगर में चली जाना।"

इतना कहकर चोर मर गया। हिरण्यवती ने ज़मीन खोदकर अशर्फियाँ निकालीं, चोर का क्रिया-कर्म किया और अपने नगर में लौट आयी।

उसी नगर में वसुदत्त नाम का एक गुरु था, जिसके मनस्वामी नाम का शिष्य था। वह शिष्य एक वेश्या से प्रेम करता था। वेश्या उससे पाँच सौ अशर्फियाँ माँगती थी। वह कहाँ से लाकर देता! संयोग से धनवती ने मनस्वामी को देखा और वह उसे चाहने लगी। उसने अपनी दासी को उसके पास भेजा। मनस्वामी ने कहा कि मुझे पाँच सौ अशर्फियाँ मिल जायें तो मैं एक रात धनवती के साथ रह सकता हूँ।

हिरण्यवती राजी हो गयी। उसने मनस्वामी को पाँच सौ अशर्फियाँ दे दीं। बाद में धनवती के एक पुत्र उत्पन्न हुआ। उसी रात शिवाजी ने सपने में उन्हें दर्शन देकर कहा, "तुम इस बालक को हजार अशर्फियों के साथ राजा के महल के दरवाज़े पर रख आओ।"

माँ-बेटी ने ऐसा ही किया। उधर शिवाजी ने राजा को सपने में दर्शन देकर कहा, "तुम्हारे द्वार पर किसी ने धन के साथ लड़का रख दिया है, उसे ग्रहण करो।"

राजा ने अपने नौकरों को भेजकर बालक और अशर्फियों को मँगा लिया। बालक का नाम उसने चन्द्रप्रभ रखा। जब वह लड़का बड़ा हुआ तो उसे गद्दी सौंपकर राजा काशी चला गया और कुछ दिन बाद मर गया।

पिता के ऋण से उऋण होने के लिए चन्द्रप्रभ तीर्थ करने निकला। जब वह घूमते हुए गयाकूप पहुँचा और पिण्डदान किया तो उसमें से तीन हाथ एक साथ निकले। चन्द्रप्रभ ने चकित होकर ब्राह्मणों से पूछा कि किसको पिण्ड दूँ? उन्होंने कहा, "लोहे की कीलवाला चोर का हाथ है, पवित्रीवाला ब्राह्मण का है और अंगूठीवाला राजा का। आप तय करो कि किसको देना है?"

इतना कहकर बेताल बोला, "राजन्, तुम बताओ कि उसे किसको पिण्ड देना चाहिए?"

राजा ने कहा, "चोर को; क्योंकि उसी का वह पुत्र था। मनस्वामी उसका पिता इसलिए नहीं हो सकता कि वह तो एक रात के लिए पैसे से ख़रीदा हुआ था। राजा भी उसका पिता नहीं हो सकता, क्योंकि उसे बालक को पालने के लिए धन मिल गया था। इसलिए चोर ही पिण्ड का अधिकारी है।"

इतना सुनकर बेताल फिर पेड़ पर जा लटका और राजा को वहाँ जाकर उसे लाना पड़ा। रास्ते में फिर उसने एक कहानी सुनाई।