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February 21, 2014

उस रात (लेखक : राकेश 'सोहम')

मुझे ऑटोमोबाइल इंजीनियरिंग में दाखिला मिला था । होस्टल भर चुका था । फ़िर वार्डन से बार-बार अनुग्रह करने पर बताया गया की एक कमरा अब भी खाली है, लेकिन वह पूरा कबाड़खाना है और साफ़-सफाई कराना पड़ेगी । पिताजी ने सहमति देते हुए कहा - 'चलेगा । शहर से कॉलेज दूर पड़ेगा इसलिए हॉस्टल में रहना ज्यादा ठीक है । '

में हॉस्टल में रहने लगा । बाद में रूम-पार्टनर मोहन भी साथ रहने लगा । लगभग महीने भर होने को था । तभी एक दिन -

मेस के खानसामा ने खाने के दौरान राज खोलते हुए मुझसे पूछा, 'और कैसा लग रहा है हॉस्टल में ?'

'बहुत मज़ा आ रहा है ..बस मस्ती', ज़वाब मेरे रूम-पार्टनर ने दिया । मैंने हाँ में सर हिलाया ।

'चलो अच्छा है वरना उस रूम में कोई रहता नहीं था । दो साल से बंद था । उसमें दो वर्ष पूर्व एक स्टुडेंट ने फांसी लगाकर आत्महत्या कर ली थी ।' यह सुनकर कुछ देर के लिए हम दोनों स्तब्ध रह गए । चूंकि हम लोग उस रूम में महीने भर आराम से रहकर गुजार चुके थे इसलिए फ़िर बेफ़िक्र हो गए । उस दिन मोहन हफ्ते भर का कहकर घर जाने के लिए निकला था लेकिन फ़िर तीसरे दिन शाम को लौट आया । अपने अंदाज़ में बोला, 'यार, तेरे साथ रहने में मज़ा आता है । आज मैं आ गया हूँ खूब मस्ती करेंगे ।'

उस रात हम दोनों गाते बजाते धूम-धडाम करते रहे । मैं गाता अच्छा था, वह टेबल ऐसे पीटता था मानो तबला बज रहा हो । फ़िर देर रात तक हम दोनों अपने-अपने बिस्तर पर बैठे बतियाते रहे । वह हाँ -हाँ करता रहा, शायद नींद में था इसलिए मेरी बडबड मज़े लेकर सुनता रहा ।

अचानक बाहर हवा बदहवास हो चली थी । बादलों की गडगडाहट के साथ बूंदाबांदी शुरू हो गई थी । मैं एक-बारगी चौंका, 'लो, अब बेमौसम बरसात .... हाय रे ऊपरवाले !' जैसे मोहन मेरे मन की बात समझ गया । उसकी रहस्यमयी मुस्कान मेरी नज़रों में खटक गईमैंने इस विचार को झटक दिया और नींद कब लगी पता नहीं चला ।

प्रातः प्रहार अचानक नींद खुल गयी । मोहन अंधेरे में ठीक उसी तरह अपने बिस्तर पर बैठा था जैसे मैनें उसे रात में सोने के पूर्व देखा था । मुझे आश्चर्य हुआ, 'क्यों बे डरा क्यों रहा है ? नींद नहीं आ रही क्या ?'

'नहीं', वह मेरी तरफ़ देखकर मुस्कुराया, 'आज शाम बहुत मज़ा आया, सच तुम मेरे अच्छे मित्र हो ।'

'हूँ, अब सो जाओ सुबह बात करेंगे', मैंने करवट ली थी की किसी ने दरवाज़े पर दस्तक दी । 'अब इतनी सुबह कौनm आ गया ? ' मैनें लगभग चिढ़ते हुए कहा, 'मोहन, जा दरवाजा खोल दे ।'

'तू खोल दे', उसने कहा ।

'उफ़, तू भी यार, .....चलो मैं ही खोलता हूँ.....सबसे अच्छा मित्र जो माना है ।' मैं उठकर दरवाजे की ओर बढ़ गया। दरवाजे के ठीक ऊपर लगी घड़ी में ४ बजने को था । रात्री समाप्ति की थी ।

'इतनी सुबह कौन हो सकता है ?', मैंने जांच लेने की गरज से आवाज़ लगाई , 'कौन है बाहर ?'

बाहर से मोहन की चिर-परिचित अंदाज़ में आवाज़ आई, 'अबे स्साले ....दरवाजा खोल....मैं हूँ मोहन ...कब से दरवाजा पीट रहा हूँ...... ।'

मैं सिहर गया । दरवाजे की चटकनी पर हाथ रखते हुए पीछे पलटकर देखा, मोहन बिस्तर पर वैसे ही बैठा भय और आश्चर्य से मेरी ओर देख रहा था !!!

इधर मेरे हाथ, चटकनी खोलने और न खोलने की स्थिति में जड़ हो गए !! 

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